तीसरा उपन्यास, “खट्टे-मीठे से रिश्ते” जून 2019 में प्रकाशित होकर मार्किट में उपलब्ध हो गया है। प्रकाशन के तुरंत बाद 20 जून को पुस्तक की एक प्रति माननीय केन्द्रीय मंत्री डॉ थावर चंद गहलोत जी को भेंट करने का सुअवसर मिला।
फिर, 16 जुलाई को माननीय उप-राष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू जी को भी पुस्तक की एक प्रति भेंट करने सौभाग्य मिला!
पिछले दिनों, जब प्रकाशन से ठीक पहले पुस्तक का प्रूफ़ पढ़ रही थी, और दिल में आया कि क्या आज भी लड़के-लड़कियाँ शादी न किए जाने पर घर से भाग जाते हैं? मन में सवाल उठ रहे थे... आजकल तो माता-पिता और उनकी संतानों में शादी-ब्याह को लेकर काफ़ी अच्छा तालमेल बनने लगा है और अधिकतर लोग इस मामले में विरोध न करके समझदारी से काम लेते हैं। मेरे मन में ये सारी बातें इसलिए आ रही थीं, कि कहानी में मैंने कुछ इस तरह का चित्रण किया है - दो प्रेमियों के घर से भाग जाने का प्रभाव कहानी के नायक-नायिका और अन्य चरित्रों पर किस तरह से पड़ता है...
प्रकाशन के बाद भी ये विचार मुझे थोड़ा उलझा ही रहा था। मैं, सोचती रहती, कि क्या अब ऐसा होता है? क्या ये सवाल अब कोई मायने रखते हैं? जवाब मिला... जब एक नेता की बेटी भाग गई! उस घटना में कौन सही-कौन ग़लत, कहना कठिन है... और, सही-ग़लत तय करने वाली मैं कोई होती भी नहीं! लेकिन मुझे मेरे सवाल का जवाब मिल गया... आज भी माता-पिता और उनकी संतान कहीं न कहीं एक-दूसरे से अपनी बातें नहीं कर पाते... वजह चाहे जो भी हो, लेकिन ऐसा आज भी हो रहा है! कहीं माता-पिता अनुशासन के नाम पर अधिक कड़क हो जाते हैं, तो कहीं संतान अनुशासनहीनता की सारी हदें पार करने लगती हैं...
और मेरा सवाल बना ही रहता है... “क्या कोई बीच का रास्ता नहीं निकला जा सकता? जिसमें, माता-पिता भी ख़ुश रहें और उनकी प्यारी संतानें भी?”
इसी विषय पर पृष्ठ 57-66 के बीच घटी घटनाओं पर नायिका गौरी के मनोभाव कुछ इस प्रकार हैं -
‘‘गौरी सोने गई तो आँखों में नींद ही नहीं थी।
कितनी ही बार अविनाश की बातों और उसके साथ होने वाली मुलाकातों ने गौरी की नींद उड़ाई थी। लेकिन आज कारण कुछ और ही था। न प्यार था और न ही मुस्कुराहट थी। आज तो प्यार का एक अलग रूप देख रही थी वह। दो प्यार करने वालों के कारण उनके परिजनों को मिलने वाले दर्द को महसूस कर रही थी। क्या सही था, क्या गलत, कौन सही था, कौन गलत, उसके लिए कुछ भी समझ पाना कठिन था। समाज का रवैया वह समझ नहीं पा रही थी।
ललिता दीदी का प्यार वह जानती समझती थी। जानती थी कि वो और पवन भैया एक-दूसरे से बहुत प्यार करते थे, एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते थे। लेकिन उनका यूँ भाग जाना, क्या ठीक था? वह समझ नहीं पा रही थी।
किशोरी आंटी के आँसू और अंकल का लाचार चेहरा वह भूल नहीं पा रही थी। उन दोनों के अलावा राजीव और पंकज भैया की झुकी हुई आँखों में भरा दर्द और शर्मिंदगी मध्यम वर्ग की बेबसी बयाँ कर रहे थे। लेकिन सोचने वाली बात यह भी थी कि ललिता दीदी ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर क्यों हुईं? आखिर वह भी तो अपने परिवार से कितना प्यार करती थीं। अपनी माँ, पापा को कितना चाहती थीं वह! फिर उन्हें इस तरह से चोट देकर कैसे चली गईं? ऐसी क्या मजबूरी थी कि एक प्यार को पाने के लिए अपने बाकी प्रियजनों को दुखी छोड़कर चली गईं?
मन न जाने कितने सवाल पर सवाल किये जा रहा था। लेकिन उसके पास अभी इतनी परिपक्वता नहीं थी कि सारे सवालों के जवाब दे पाती। ‘क्या ललिता दीदी का भागना ज़रूरी था? क्या कोई और तरीका नहीं था? क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि वह अपने माता-पिता की सहमति से पवन भैया के साथ घर बसा पातीं? क्या कोई ऐसा तरीका नहीं था कि उनके माता-पिता भी खुश रहते और वह भी?’’