कल और आज (लघुकथा)
कल - सात-आठ बरस की अंजलि उछलती-फुदकती अपने पापा की ऊँगली पकड़े घर की ओर चली जा रही थी। उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना न था, क्योंकि अब तो उसके स्कूल में गर्मी की छुट्टियाँ हो गई थीं। अब तो बस, सुबह से शाम, शाम से रात, बेरोकटोक, केवल खेल, खेल और खेल। कुछ मन ही मन और कुछ अपने दोस्तों के साथ छुट्टियों के लिए वह कितनी सारी योजनाएँ बना चुकी थी। दोपहर में अपनी गुड़ियों-गुड्डों के साथ घर-घर खेलेगी... धूप में बाहर जाना न होगा, तो मम्मी-पापा की डांट भी न पड़ेगी। सारी सहेलियों को घर पर ही बुला लेगी... कभी अपने घर पर खेलेगी तो कभी निधि, स्वाति या दिव्या के घर पर! कभी माँ की पुरानी साड़ी या उनके फॉल से गुड़ियों-गुड्डों के लिए कपड़े बनाएगी, तो कभी उनकी शादी की धूम मचाएगी। कभी सारी सहेलियाँ मिलकर मिट्टी के छोटे-छोटे बर्तनों में चाय बनाएँगी, छोटी-छोटी प्लेट में नाश्ता सजाकर पार्टी करेंगी, तो कभी मिट्टी के छोटे से चूल्हे के नीचे मोमबत्ती की आँच पर कच्चा-पक्का खाना बनाएँगी। और फिर नन्हे-मुन्ने डिनर-सेट में वो खाना सजाकर दावत उड़ाएंगी। कभी-कभी दावत का वही खाना सजाकर पापा-मम्मी, अंकल-आंटी लोगों को भी दे आएँगी। और शाम ढले तो सब बस बाहर की ओर खेलने दौड़ जाएँगी। कभी लुकाछिपी, तो कभी ऊँच-नीच, कभी पकड़म-पकड़ाई, तो कभी-कभी गिल्ली-डंडा और पिट्ठू, खो-खो, कबड्डी! पूरी कॉलोनी के बच्चे साथ मिल ख़ूब धूम मचाएँगे। तप्त गर्मियों की धूप में सोई कॉलोनी, शाम होते-होते एकदम जाग जाएगी, गुलज़ार हो जाएगी।
आज – ऑफ़िस से अंजलि आज जल्दी ही निकल पड़ी। अपने बेटे के स्कूल पहुँचने की जल्दी थी। गर्मी की छुट्टियों से पहले आज आख़िरी दिन था। उसे स्कूल में देखते ही बेटा उछलकर उसके गले लग गया और वो बेटे को साथ ले घर की ओर निकल पड़ी। इतनी लंबी छुट्टियों की कल्पना से ही बेटा ख़ुशी के मारे चहक रहा था और अंजलि अपने ही ख़यालों में खोई हुई थी। मन ही मन एक बार फिर से योजनाएँ चल
रही थीं। दिन में अकेले बच्चे की सुरक्षा को लेकर दुविधा में पड़ी थी। सारे दिन किसके सहारे छोड़कर हम पति-पत्नी अपने-अपने ऑफ़िस जाएँगे! अब ये सारा दिन टीवी के सामने न बैठा रहे, इसके लिए इसे समर-कोर्स में दाखिल करवाना होगा, और बीच में किसी न किसी को ऑफ़िस से निकलकर इसे घर पहुँचाना होगा। खाना खिलाकर सोने के निर्देश देकर वापस ऑफ़िस होगा। शाम को घर पर बोर न हो इसके लिए किसी स्पोर्ट्स की क्लास में भी एडमिशन करवाना होगा, और वहाँ भी दोनों में से किसी को छोड़ने, लेने जाना होगा। सारे दिन की थकान भुलाकर रात में उसे हॉलिडे होमवर्क करवाना होगा।
अपने बचपन की तुलना आज से कर अंजलि असमंजस में पड़ जाती है। क्या उसकी छुट्टियाँ होने पर उसके माता-पिता भी ऐसे ही परेशान होते थे?
या, वो और समय था, जब माता-पिता कुछ निश्चिंत ही रहते थे? क्या तब की छुट्टियाँ आज से अलग होती थीं?
या फिर, छुट्टियाँ तो अब भी वही हैं, बस भूमिका बदलने के साथ ही भाव भी बदल गए हैं... और भावनाएँ भी!