बर्फ़ के गोले नहीं, ये तो गर्मियों में मिले सेमल के उपहार हैं!
बचपन में भी बहुत प्यारे लगते थे, और आज भी आँखों को ठंडक सी दे जाते हैं!
फ़र्क बस इतना है कि तब हम इनसे खेलते थे, और आज इनसे साँसों की तकलीफ़ें हो जाती हैं!
प्रकृति तो जैसी है, वैसी ही रहती है... अपने हर रूप में सुहावनी!
बदल तो हम जाते हैं, और अपने मुताबिक उसे भी बदलने की कोशिश करने लगते हैं... फिर परिणामों का रोना रोते हैं!
अब भी संभल जाएँ... पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की अहमियत समझें... तो बचा सकते हैं, ख़ुद को प्रकृति के कोप से!
आख़िर तो वह माँ है! क्रुद्ध तो होती है, पर प्रेम भी तो कितना करती है!
मानव अपनी सहूलियतों के लिए, अपने ऐशो-आराम और दिखावों के लिए विकास तो करे, पर ज़रा याद भी रखे...
छोटे-छोटे पौधे पुराने, बड़े पेड़ों की जगह नहीं ले सकते! जब तक बहुत ही ज़रूरी न हो जाए, बड़े-बड़े पेड़ों को काटकर उनकी जगह छोटे पेड़ लगाने का फ़ायदा उतना नहीं...
भूमिगत जल स्तर घटता जा रहा है, नए पौधों की जड़ें उतनी पनप ही नहीं पातीं, जितनी गहरी पुराने वृक्षों की जड़ें फैल चुकी होती हैं।
पुराने वृक्षों को काटकर किया गया विकास बस क्षणिक ही है... क्योंकि उन्हें काटकर हम उनकी ही नहीं, अपने जीवन की जड़ें भी काटते हैं!