कहानी – “मुखौटे”

में प्रकाशित कहानी ...

 

मुखौटे

-गरिमा संजय

 

चमचमाती नीली ड्रेस और दो चोटियों में लाल चमकते रिबन के साथ गीता स्टेज की सीढ़ियों पर सबसे आगे खड़ी थी। आज स्कूल में बहुत बड़ा आयोजन था। विधायक जी खुद उन सारी बच्चियों को सम्मानित करने आने वाले थे। बच्चियों के चेहरों पर ख़ुशी की दमक देखते ही बनती थी। गीता का उल्लास तो और भी अधिक था।

विधायक जी के आते ही भीड़ से भरे पूरे मैदान में हरकतें बढ़ गयीं। वे तेज़ी से बढ़कर मंच पर आसीन हो गए, और उनके सहयोगियों ने मंच को घेर लिया।

आयोजन शुरू हुआ। थोड़ी ही देर में घोषणा हुई, ‘और अब स्कूल की मेधावी छात्राओं को विधायक जी पुरस्कार देंगे,’ और इसके साथ ही माइक पर नाम पुकारा गया, ‘कुमारी गीता, कक्षा सात...’

चहकती, फुदकती गीता जितना मन ही मन उछल रही थी, उतने ही उसके क़दमों में उछाल थी। पलक झपकते वह मंच पर जा पहुँची। दौड़कर विधायक जी का चरण-स्पर्श कर लिया। आखिर, वह तो विधायक जी को व्यक्तिगत रूप से जानती थी, उनके घर में उसका आना-जाना था। विधायक जी ने भी झट से भरपूर स्नेह के साथ बच्ची के सिर पर हाथ फेरा और उसे खूब-सारा आशीर्वाद दे डाला, ‘ऐसे ही ख़ूब पढ़ती रहो, बिटिया... ख़ूब तरक्की करो, अपने माता-पिता का नाम रौशन करो, देश का नाम रौशन करो...’

पुरस्कार लेकर ख़ुशी से और भी फुदकती हुई गीता वापस अपनी कक्षा के दूसरे बच्चों के साथ आ बैठी। थोड़ी ही देर में विधायक जी का भाषण शुरू हुआ। मंत्रमुग्ध सी गीता भी सुन रही थी... ‘एक बेटी पढ़ती है, तो पूरा परिवार पढ़ता है, पूरी पीढ़ी शिक्षित होती है...’ मेधावी गीता के मन में विधायक जी के लिए अथाह श्रद्धा भाव बढ़ता ही जा रहा था।

‘आज शाम को पापाजी के साथ विधायक जी की कोठी पर ज़रूर जाऊँगी,’ मन ही मन गीता ने निश्चय किया। उसके पिता विधायक जी के यहाँ ही नौकरी करते थे। कभी-कभार वह भी पापा के साथ वहाँ हो आती थी। आंटी जी कभी उसे लड्डू तो कभी रसगुल्ले खिलाती थीं और नीरा दीदी अक्सर कुछ पेन और पेन्सिल उसे गिफ्ट दे देती थीं।

शाम को पापा जी से ज़िद करके वह सचमुच ही विधायक जी की कोठी पर पहुँच गई। जानती थी आंटी जी और नीरा दीदी उसका पुरस्कार देखकर बहुत खुश होंगी। उसके चहकते कदमों को विधायक जी की कोठी में कोई न रोकता। सभी जानते थे कि वह मैडम की लाडली है और नीरा दीदी की मुँहलगी। लेकिन नीरा दीदी कहीं दिखाई नहीं दे रहीं, और न ही आंटी जी। सारे कमरे देख लिए, किचेन में भी झाँक आई। दोनों कहीं न दिखीं। ‘कहीं घूमने गई होंगी’ सोचकर उदास क़दमों से बच्ची वापस जाने लगी।

आज तो आंटी जी और नीरा दीदी से मिलने का बड़ा मन था। उन्हें अपना पुरस्कार जो दिखाना था। भारी मन से वापस जा ही रही थी कि विधायक जी के कमरे के बाहर बच्ची के कदम अचानक ठहर गए।

‘इतने गुस्से में विधायक जी किसे डपट रहे हैं!’ नन्ही गीता घबरा गई।

धीमे से झाँककर देखा तो पाया आंटी जी चुपचाप, सिर झुकाए एक कोने में कुर्सी पर बैठी हैं, और नीरा दीदी हाथ बाँधे अपराधी की तरह खड़ी हैं।

‘बिना मेरी इजाज़त के तुमने आवेदन भी कैसे किया?’ विधायक जी बहुत गुस्से में गरज रहे थे।

‘ज़िद करके तुम पढ़ाई करती गईं, मैंने नहीं रोका... लेकिन अब पढ़ाई काफ़ी नहीं जो तुम्हें नौकरी भी करनी है? समाज में मेरी बेईज्ज़ती कराओगी? कितनी नाक कटेगी मेरी, आभास भी है तुम्हें? ये सब मनमानी नहीं चलेगी... अच्छा लड़का देखा है, शादी तक चुपचाप घर बैठो और अपनी माँ से घर के कामकाज सीखो। घर-परिवार संभालने में न तुम्हारी कोई डिग्री काम आएगी और न ही नौकरी...’

गीता चुपचाप सहमी सी खड़ी थी। कभी नीरा दीदी की ओर देखती तो कभी आंटी जी की ओर और कभी विधायक जी के शब्दों को समझने की कोशिश करती। नन्हे मन में कुछ सवाल तो ज़रूर उठे, पर उनका जवाब किससे पाती?

इतनी छोटी थी कि समझ न सकी... सुबह ही तो विधायक जी उसे खूब पढ़ने-लिखने के लिए कह रहे थे... ख़ूब तरक्की करो, देश का नाम रौशन करो, माता-पिता का नाम रौशन करो बोल रहे थे! तो फिर, नीरा दीदी की पढ़ाई से वे इतने खुश क्यों नहीं? समझ ही न पा रही थी कि कितनी पढ़ाई ज़रूरी है, कितनी नहीं! किसके लिए ज़रूरी है, और किसके लिए नहीं। उसके लिए तरक्की कितनी ज़रूरी है, और नीरा दीदी के लिए कितनी।

छोटी थी, समझ न सकी, वह किन तरीकों से अपने माता-पिता और देश का नाम रौशन करेगी, और नीरा दीदी कैसे?

 

***

 

दिल्ली से वरिष्ठ पत्रकार , ब्लागर गरिमा संजय की कहानी पढ़िए – मुखौटे