इकोलॉजी और इकॉनमी –
पर्यावरण और आर्थिक व्यवस्था
औद्योगीकरण रोज़गार और आर्थिक विकास का सीधा रास्ता है। एक कंपनी/ उद्योग बंद होते ही, केवल कुछ हज़ार कर्मचारी ही बेरोजगार नहीं हो जाते, बल्कि कई हज़ार परिवार बेघर हो जाते हैं, कई हज़ार बच्चों की पढ़ाई रुक जाती है, कई हज़ार परिवारों की ज़िंदगियाँ सड़क पर आ जाती हैं।
दूसरी ओर, दिनों दिन तपती धरती धीरे-धीरे डराने लगी है। पेय जल की कमी इंसान को ही बंजर सी बनाने लगी है।
दोनों परिस्थितियाँ हम सभी के लिए घातक हैं, लेकिन हम इंसान इतने मासूम हैं, कि दोनों का एक साथ संरक्षण ही नहीं कर पाते।
उद्योगों को बचाने चलते हैं तो पर्यावरण नष्ट करते हैं और पर्यावरण बचाने के चक्कर में हज़ारों-लाखों लोगों की जीविका का साधन छीन लेते हैं।
भूल नहीं सकते, पर्यावरण बचाने के लिए जिन उद्योगों को बंद करते हैं उनके उत्पादों की ज़रुरत तो ख़त्म नहीं होती। यानी उन उत्पादों का निर्माण अपने देश में तो बंद कर देते हैं और बाहर से उनका निर्यात शुरू कर देते हैं, यानी आर्थिक रूप से दोहरा नुकसान!
क्यों नहीं हम पर्यावरण को बचाए रखकर आर्थिक प्रगति कर सकते?
आखिर, किसी भी समस्या का निवारण उस समस्या को जड़ से उखाड़ने में होता है, या समस्या का निवारण करने में? हमें भूख लगती है तो क्या हम पेट को अपने शरीर से अलग कर देते हैं, या फिर भोजन का प्रबंध करते हैं?
हर उद्योग से किसी न किसी रूप से पर्यावरण का नुकसान होता ही है। इसका यह मतलब तो नहीं हो सकता कि हम सारे उद्यम बंद करके पर्यावरण की रक्षा करें और हर उत्पाद के लिए विदेशों पर निर्भर करने लगें?
वैसे तो जो चीज़ धरती को नुकसान कर रही है वह यदि विदेशी धरती पर भी बनायी जाए, नुकसान तो व्यापक अर्थों में इंसान का होगा ही। जलवायु परिवर्तन का असर किसी एक देश की सीमा तक सीमित नहीं रह सकता।
दिल्ली में यातायात की समस्या दिनों दिन बढ़ती जा रही थी, सड़कों पर ट्रैफ़िक जानलेवा हो रहा था। मेट्रो रेल अति आवश्यक हो गयी। सभी समझ रहे थे कि मेट्रो के निर्माण में धूल-सीमेंट आदि से वायु प्रदूषण होगा, और साथ ही रास्ते में आने वाले बहुत से पेड़ों को भी काटना पड़ सकता है। इस समस्या से निपटने के लिए दिल्ली मेट्रो के चीफ़, ई श्रीधरन जी ने उपाय निकाला – मेट्रो रेल का सारा निर्माण कवर करके किया गया, अधिकतर निर्माण-कार्य रात में किया गया, जिससे वायु प्रदूषण का प्रभाव न्यूनतम किया जा सके, और साथ ही उन्होंने निर्णय लिया कि काटे गए हर एक पेड़ के स्थान पर दिल्ली मेट्रो दस पेड़ लगाएगी।
संभव है कभी दस के नौ, आठ या पाँच ही पेड़ रह गए हों; यह भी संभव है कि कभी उन दस पेड़ों में से अधिक बच ही न सके हों, और यह भी संभव है कि नए पेड़ अभी पुराने जमे हुए विशाल पेड़ों का स्थान लेने के लिए तैयार नहीं हो पाए हों, लेकिन यह भी सच है कि जहाँ-जहाँ वृक्षारोपण हुआ, और जहाँ पेड़ों को बचाने की कोशिश की जाती रही, वहाँ आज नहीं तो कल वे पेड़ बड़े होकर हमें संतुलित पर्यावरण दे सकेंगे।
क्या ऐसे ही उपाय उद्योगों को नहीं अपनाने चाहिए?
साथ ही, पशु-पक्षियों का संरक्षण भी पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। अतः यथासंभव उनका भी ख़याल रखें।
हमें उद्योगों की भी उतनी ही ज़रुरत है जितनी स्वस्थ पर्यावरण की।
क्या उद्योगों के लिए पर्यावरण संरक्षण के नियमों को लागू करने की सख्ती बढ़ा नहीं देनी चाहिए?
आमतौर पर उद्योग वायु और जल प्रदूषण करते हैं, जिससे व्यापक रूप से जलवायु प्रभावित होती है।
क्यों न उद्योगों के अपशिष्टों को फेंकने के कुछ दुरुस्त तरीके अपनाए जाएँ, जिससे जल प्रदूषण न्यूनतम हो सके।
क्यों न हर कंपनी एक सलाहकार के रूप में ही सही किसी पर्यावरणविद की सलाह पर काम करे?
क्यों न हर कंपनी अपने प्लांट के आसपास और शहरों, गाँवों में भी वृक्षारोपण करे? इन वृक्षों के आसपास अपनी कम्पनी का नाम लगवा कर पर्यावरण संरक्षण में सहयोग करें और साथ ही अपनी कम्पनी का प्रमोशन भी करें।
क्यों न सरकार ऐसी कम्पनियों को बंद करने के स्थान पर कम्पनियों पर पर्यावरण संरक्षण के लिए दबाव डाले? आखिर उद्यम बंद करने से सरकार पर भी तो बेरोज़गार जनसंख्या का दबाव पड़ेगा।
जहाँ स्वस्थ पर्यावरण सम्पूर्ण मानव-जाति के जीवन के लिए अनिवार्य है, वहीँ ये उद्यम न केवल सरकार, बल्कि हर नागरिक के लिए आवश्यक हैं।