लड़की
उसकी काली बड़ी आँखें अब गहराई में समा गयी थीं। आँखों के चारों ओर बने काले घेरे न जाने कितनी अनकही पीड़ा को बयाँ कर रहे थे। सूखी आँखों में कोई उमंग नहीं, ख़ुशी की एक छोटी सी भी झलक नहीं। हाँ असीम दर्द और असह्य पीड़ा ज़रूर थी, जिनके रहते उसकी आँखों में रह-रहकर गीलापन भी आ जाता था। लगातार लुढ़कते आँसुओं ने जाने कब उसके गालों को अपना ठिकाना बना लिया था। आँसुओं के गहरे निशानों में उसके गालों की स्वाभाविक लाली झुलस चुकी थी। होठ काले पड़ चुके थे। और शरीर.... वो तो हड्डियों का एक ढाँचा भर ही रह गया था।
अभी-अभी फिर से उल्टियाँ करके आयी थी और खाट पर निढाल हो गिरी ही थी, कि सासू माँ के ज़हर बुझे शब्द कानों में पड़े थे, “भई, हमलोग तो इत्ते बच्चे जन दिए, कभी खाट न पकड़ी, और इनको देखो, दूसरे ही बच्चे में इत्ती बीमार कि बिस्तर ही पकड़ लिया!”
“अरी अम्मा, बीमारी-वीमारी कुच्छो नहीं! ई तो बिस्तर पर पड़े रहने का बहाना है सब।” बड़ी ननद के व्यंग्यबाण कानों में पड़े थे, लेकिन उसकी चरमराती देह इतने ताने सुनकर भी इतनी ताकत नहीं जुटा पायी कि उठकर उन दोनों की शिकायतें दूर कर पाती, उनकी कभी न ख़त्म होने वाली फ़रमाइशें पूरी कर पाती।
“दूसरा बच्चा!” सरोज बस अपने आप में ही बुदबुदाकर रह गयी।
अब तो उसकी शादी को छः साल पूरे होने को थे। शादी के दसवें महीने में ही उसकी लाडो ने उसकी दुनिया में कदम रखा। लाडो को देखकर मुस्कुरा उठी थी, सरोज। ऐसा लगा जैसे जीने का एक सहारा मिल गया था। पिछले दस महीने उसने एक ऐसी कैद में बिता दी थी जहाँ उसकी साँसों पर भी पाबंदी लगी हुई थी। लाडो को गोद में लेकर उसे लगा जैसे दुश्मनों के खेमे में आज उसे एक दोस्त मिल गयी थी।
लेकिन वो तो लाडो थी... वो लड्डू गोपाल तो आया ही नहीं, जिसकी आस में सासू माँ ने पिछले आठ महीने सरोज के लिए ढंग से खाने-पीने का बंदोबस्त कर दिया था। अब लाडो के लिए कैसा खाना, क्या बंदोबस्त? लाडो की माँ के लिए क्या सुख, क्या सुविधाएँ? तीन दिन की बच्ची को उस दिन सुबह दूध पिला ही रही थी कि सासू माँ चीखी थीं।
“अरी महारानी, कुछ कामधाम भी संभालेगी या बस, बच्ची के बहाने हर बखत बिस्तर ही तोड़ती रहेगी?”
सरोज को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ था। उसके मायके में भी तो बच्चे हुए थे, तीन दिन में कौन माँ कामधाम शुरू कर देती है? लेकिन आवाज़ तो उसे ही लगाई गयी थी। ‘वहाँ और कोई तो बच्ची के बहाने बिस्तर पर पड़ा नहीं था!’ सोचकर, जल्दी से बच्ची को लिटा ही रही थी कि पाँव पटकती छोटी ननद कमरे में आ धमकी, “भाभी, अम्मा बुला रही हैं, तुरंत आओ।”
लेकिन बच्ची का पेट भरा नहीं था। ऐसे आधे पेट लिटाने से वो चीखकर रो पड़ी। सरोज ने व्याकुलता से ननद की ओर देखा। उसकी भवें तो और भी चढ़ गयीं। वहीँ से अपनी अम्मा को आवाज़ दी, “अम्मा, ये तो बच्ची को रुला रही हैं।”
सरोज की आँखें फटी की फटी रह गयीं। “सामने से ही कितना झूठ बोलती है, ये लड़की! पीठ पीछे तो जाने क्या-क्या करती होगी!”
“नहीं, नहीं... रुला नहीं रही... इसका पेट नहीं भरा न अभी...” सरोज की ज़ुबान लड़खड़ा रही थी।
“उसका पेट तो कभी न भरेगा,” सासू माँ धमकती हुई आ पहुँची थीं। “अच्छा बहाना थामकर बैठ गयी है, निकम्मी! तुझे क्या लगता है, घर का सारा काम मैं करूँगी, और तू यहाँ बैठी खटिया तोड़ती रहेगी?”
सुनकर सरोज चुपचाप उठ गयी। उसकी लाडो चीखचीख कर रोती रही। लगातार तेज़ होती उसकी चीख धीरे-धीरे दीवारों के कान चीरने लगी, और फिर धीरे-धीरे मंद भी पड़ने लगी। और कुछ देर में शांत हो गयी। सुबकते-सुबकते भूखी ही सो गयी थी वो तीन दिन की बच्ची, क्योंकि उसकी माँ को घर की सफ़ाई करनी थी, कपड़े-लत्ते धोने थे।
कुछ ही महीनों में सरोज एक बार फिर पेट से थी।
“तीसरा महीना शुरू हो गया है, अभी से जाँच करवा लो, नहीं तो पता चला कि फिर से बिटिया जन देंगी महारानी” रात में खाना परोसते समय सरोज के कानों में अम्मा जी के शब्द पड़े।
जल्द ही जाँच करवाई गयी, और फिर गर्भ गिराया गया। सबकुछ बहुत ही आसान हो गया है। एक जाँच से पता चल जाता है कि पेट में बच्चा पल रहा है, या बच्ची। जो लड़का हो तो रखो, नहीं तो गिरा दो। गिराना भी बहुत आसान है। बस कुछ ही घंटों में सारा खेल तमाम। इतना आसान कि अगले चार साल चार बार सरोज यही करवाती रही। हर बार गर्भवती होती, और हर बार तय समय में तय क्लीनिक में जाँच होती, और हर बार पेट में लड़की ही होती। और फिर बड़ी ही आसानी से कुछ ही घंटों में उस लड़की को उसके पेट से निकाल दिया जाता! किसी को कोई परेशानी न होती। हाँ, पति सुरेश को एक परेशानी ज़रूर होती कि उसकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इस काम में खर्च हो जाता, और उसे अपने बेहिसाब शौक पूरे करने में कहीं न कहीं कुछ कटौती करनी पड़ती।
सरोज कभी न समझ पायी, ये हर बार उसके पेट में लड़की आती कहाँ से है! साल-दर-साल गर्भपात कराते-कराते उसका शरीर वैसे ही कमज़ोर होने लगा था। उस पर घर के सारे कामकाज की जिम्मेदारी भी तो उसी के सिर पर थी। कहने को दो जेठ और एक देवर का परिवार भी वहीं रहता था। लेकिन अम्मा जी तो सरोज के पास ही रहतीं। क्योंकि अम्मा जी की खरी-खोटी तो न सरोज की दोनों जेठानी सुनती, और न ही देवरानी! आखिर उन सबों के यहाँ तो लड़के पैदा हुए थे! वे सब क्यों सेठने लगीं अम्मा जी को? फिर, अम्मा जी तो उसी परिवार में रह सकती थीं न, जहाँ की सत्ता पूरी तरह से उनके हाथ में हो!
लेकिन इस बार तक सरोज पूरी तरह से कमज़ोर हो चुकी थी। बेटे की आस में एक बेटी को जना था और फिर चार गर्भपात करवाए थे उसने। भले ही अम्मा जी को लग रहा हो कि ये उसका दूसरा ही बच्चा है... पर उसका दर्द तो छठें बच्चे का था!
लेकिन इस बात का होश न तो उसके पति को था और न ही उसकी सासू माँ को। औरत होकर भी वो सरोज की पीड़ा, उसकी तकलीफ कैसे नहीं समझ पाती थीं! सरोज मन ही मन हैरान होती, लेकिन कभी कुछ कह नहीं पाती। उनसे कुछ कहने की हिम्मत तो उसके अन्दर कभी भी न थी। उस पर लड़की की माँ होने की शर्म ने उसके होंठ और भी सी रखे थे।
तय समय पर एक बार फिर उसे डॉक्टर की क्लीनिक में पहुँचाया गया। एक बार फिर से जाँच हुई।
उस दिन सरोज चल नहीं पा रही थी। किसी तरह घिसटती हुई डॉक्टर के कमरे तक पहुँची थी। अपने कमज़ोर शरीर को लिए सरोज डॉक्टर के सामने बेजान सी बैठ गयी। उसकी बगल में ही पति और सासू माँ भी बैठे थे। कोई भी बात उनसे छुपाई न जा सके, इसलिए वो हमेशा सारे टेस्ट में साथ ही जातीं।
कातर निगाहों से सरोज डॉक्टर की ओर देख रही थी, और थोड़ी देर में उसके सूखे होंठ कुछ फड़फड़ाए, “मैडम, सब ठीक है?”
डॉक्टर ने एक नज़र उसपर डाली और गहरी सांस लेकर बोली, “क्या ठीक है? नब्ज़ तो मिल नहीं रही तुम्हारी। कुछ खाती-पीती नहीं?”
“अरे डाक्टरनी साहिबा, हर समय तो रसोईं में घुसी रहती है... बनाती है तो खाती नहीं होगी क्या भला? कितना भी खाए, इसके तो शरीर ही में कुछ नहीं लगता।”
सुनकर सरोज चुप रह गयी। डॉक्टर आगे बोली, “देखो, जाँच की रिपोर्ट तो शाम तक मिलेगी। लेकिन इस बार कुछ हो नहीं सकता।”
“हो नहीं सकता? क्या मतलब, डाक्टर मैडम?” इस बार पतिदेव सुरेश बोल पड़े थे।
“अरे भई, इसका शरीर तो इतना मज़बूत भी नहीं कि बच्चा जन सके, ऐसे में बच्चा गिरवाने की बात तो भूल ही जाओ! ये तो मर जाएगी।”
डॉक्टर ने सरोज के पति और सास को डराने के लिए बोला, ताकि इस बार वो लोग बच्चा न गिरवायें। लेकिन डरी तो केवल सरोज। आँखों के चारों ओर फैले काले घेरे अचानक ही गीले हो गए।
देखकर, सरोज को समझाने की नीयत से डॉक्टर बोली, “देखो, तुम ताकत की चीज़ें खाओ, शरीर को आराम दो, फिर सब ठीक हो जाएगा”
लेकिन इस बार सरोज का चेहरा सख्त हो गया था।
“नहीं मैडम, उससे कुछ नहीं होगा। अगर इस बार भी लड़की है, तो आप इस बार भी बच्चा गिरवा ही दीजिये”
“बेवकूफ़ हो? मर जाओगी तुम।” डॉक्टर ने तुरंत उसे डपटा था।
“तो अच्छा होगा न? एक बच्ची को तो ये लोग जैसे-तैसे पाल ही लेंगे” अपने पति और सास की ओर देखती हुई बोली।
“लेकिन एक और बेटी हुई तो अपने साथ-साथ इन दोनों के लिए भी यही सारे दुःख-दर्द इकट्ठे करूँगी! इतना न हो पायेगा अब मुझसे...”
डॉक्टर उसकी ओर ध्यान से देखने लगी। उसकी पीड़ा वो महसूस कर सकती थी। उसकी बातों का मर्म भी समझ पा रही थी। लेकिन उसे समझाने के लिए शब्द नहीं जुटा पा रही थी। ये भी नहीं समझ पा रही थी कि ऐसी स्थिति में उसका मरना ही ठीक रहेगा या फिर बच्चा पैदा करना बेहतर होगा।
उधर सासू-माँ और पतिदेव के दिमाग खौल रहे थे। आज तो उनके सामने सरोज की जुबान बहुत चल रही थी। दोनों उसे गुस्से में तरेर रहे थे। अभी तो कुछ नहीं बोले, किसी तरह गुस्सा पिए बैठे रहे दोनों, लेकिन घर पहुंचकर खबर लेंगे उसकी। दोनों के मन में एक ही बात चल रही थी।
डॉक्टर खुद भी तो एक लड़की ही थी। स्कूल में पढ़ाने वाली सारी मास्टरनी भी लड़कियाँ ही बनती हैं। बहुत सी लड़कियाँ तो हवाई जहाज़ भी उड़ा रही हैं, लड़कों जैसे सारे काम कर रही हैं। लेकिन फिर भी ये सब तो किसी और के घर के किस्से होते हैं। अपने यहाँ तो किसी को लड़की नहीं चाहिए! डॉक्टर का मन उलझा हुआ था, कि अचानक सरोज बिलख पड़ी थी।
“ये हर बार मेरे ही पेट में लड़की कहाँ से आ जाती है, मैडम?”
डॉक्टर ने भाव-रहित नज़रों से उसकी ओर देखा, और फिर एक नज़र उसके पति और सासू माँ पर डाली, फिर आवेश में बोली, “तुम्हारे पति से, और कहाँ से?”
सुनकर सरोज ही नहीं, उसके पति और सासू माँ भी चौंके थे।
डॉक्टर के मुँह से ऐसी बात सुनकर अम्माजी काहे चुप रहतीं, तुरंत ही बोल पड़ीं, “अरे-अरे, कैसी बेशर्मी की बात करती हो, डाक्टरनी साहिबा?”
“बेशर्मी की नहीं, माताजी, विज्ञान की बात कर रही हूँ।” डॉक्टर ने उनकी ओर हिकारत भरी निगाहों से देखते हुए कहा।
“आपको शायद मालूम नहीं है, किसी भी बच्चे का लिंग-निर्धारण बच्चे के बाप पर निर्भर करता है, माँ पर नहीं। इसलिए बेटी होती है या बेटा, इसके लिए केवल बाप ही ज़िम्मेदार होता है, माँ नहीं!”
विज्ञान के इस ज्ञान से तो अनजान थे वे सब। हैरानी से डॉक्टर को देखते रह गए। अगर बाप ज़िम्मेदार होता है, तो लोग माँ पर क्यों आरोप जड़ते हैं?
“लेकिन दर्द तो हर बार मुझे ही मिलता है, डॉक्टर... बेटी होने पर भी, और उसे गिराने पर भी!” सरोज जैसे कराह उठी थी।
डॉक्टर बस अवाक् सी उसे देखती ही रह गयी। पहली बार उसकी आँखों में नरमी आयी। सरोज को समझाने के लिए बस इतना ही बोली, “हौसला रखो, सब ठीक होगा।” लेकिन मन ही मन गुँथ रही थी कि क्या सही होगा। क्या ऐसे हालातों में सरोज का मर जाना ठीक होगा, या फिर एक और बेटी जनकर उसे भी ऐसी ही ज़िन्दगी के लिए तैयार करना ठीक होगा?
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