कुछ वर्ष पहले कारागार के जीवन पर फ़िल्म्स डिवीज़न की दो डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मों के लिए लेखन-निर्देशन से सम्बन्धित काम करने का अवसर मिला था। फ़िल्म के निर्माण के लिए लगभग 15-20 दिनों तक नियमित रूप से दिल्ली स्थित तिहाड़ जेल में बंदी भाई-बहनों और जेल प्रशासन से सम्पर्क बना रहा। कारागार में जीवन के फ़िल्मांकन के लिए हम अपनी कैमरा-यूनिट के साथ रोज़ सुबह 10 बजे वहाँ पहुँच जाते, और शाम 5 बजे तक किसी न किसी कारागार में लोगों से मिलते, बातें करते, कुछ फ़िल्मांकन करते, कुछ शोध, कुछ बातें करते तो कुछ अनुभव बंटोरते। इस दौरान बहुत से बंदी भाइयों और बहनों से मुलाक़ात हुई। बहुत से बाल अपराधियों से भी मुलाक़ात हुई। कुछ ने थोड़ी-बहुत बात की, कुछ ने शब्दों के बजाय आँसुओं की बरसात की, तो कुछ ने केवल नज़रें चुराई। मज़े से समय गुज़ारते कुछ बाहुबलियों से भी बातचीत हुई। कुछ संगीन अपराधियों के बैरक बाहर से देखे। कारागार के अन्दर के माहौल को बहुत हद तक जिया।
बातचीत से ही नहीं, आँकड़ों से भी स्पष्ट था कि हमारे देश के अधिकतर कारागार में क्षमता से अधिक कैदी बंद हैं, कारण है ‘अंडरट्रायल’ बंदियों की बहुत बड़ी संख्या। लगभग दो तिहाई कैदी इसी श्रेणी में आते हैं, और केवल एक तिहाई ही अपराधी सिद्ध हुए हैं। यानी, कितनी बड़ी संख्या में ऐसे लोग अपराधी जीवन जी रहे हैं, जिनके अपराध सिद्ध ही नहीं हुए।
इनके लिए पता नहीं कोई रोता है या नहीं! इन्हें तो कोई जानता ही नहीं। क्योंकि इन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कुछ किया ही नहीं! जिनपर अभियोग सिद्ध हुआ है, उनमें से भी अनेक पेशेवर अपराधी नहीं। बहुत से ऐसे हैं, जो या तो किसी साजिश में फँस गए, और या फिर अपने ही क्षणिक आवेश का शिकार बने हैं। बाल-कारागार में ऐसे बच्चे भी 18 के होने तक इंतज़ार कर रहे हैं, जिनके हाथों खेलकूद में हुई हाथापाई के दौरान दोस्त की हत्या हो गयी। संभव है, उसी हाथापाई में खुद ये मारे जाते और दूसरा बच गया होता!
कौन रोयेगा इन अपराधियों के लिए?
इन्होंने तो ज़िन्दगी में कुछ किया ही नहीं! इनके लिए हम-आप क्या रोयेंगे? इनमें से अधिकाँश से तो इनके तथाकथित अपने ही मिलने नहीं आते। ऐसे में इनके बरी होकर वापस जाने पर भी इनके समाज में इन्हें कौन स्वीकारता होगा?
महिलाओं की स्थिति तो और भी अधिक बुरी देखी। कितनों को अपने बच्चों को वहीं जन्म देना पड़ा, तो कितनी ही कभी अपने नवजात तक का मुंह नहीं देख सकीं। घर का खाना-पीना तो भूल जाइए, उनसे कोई मिलने भी नहीं आता। रक्षा-बंधन जैसे त्योहारों पर जहाँ पुरुष कारागार के सामने उनकी बहनों की लंबी लाइन लगी होती है, वहीं महिला कारागार के सामने ऐसा कुछ भी नहीं होता। ऐसे बहुत से त्यौहार ये महिलाएँ आपस में ही मिलकर मना लेती हैं, लेकिन बाहरी समाज का इनसे कोई वास्ता नहीं।
सोचने वाली बात है, जब ये निर्दोष सिद्ध होने के बाद भी बाहर आते होंगे तो कौन इनके लिए ‘चियर’ करता होगा? कौन खुशियाँ मनाता होगा, ‘भाई आ गया, भाई आ गया’ या ‘बहन आ गयी, बेटी आ गयी!’
भूल नहीं सकते कि इनमें से अधिकाँश के अपराध या तो सिद्ध नहीं हुए, या अभावग्रस्त जीवन के चलते उन्होंने किस्मत के आगे हार मान ली।
हम आम भारतीयों को ऐसी बातों से क्या फ़र्क पड़ेगा? क्यों फ़र्क पड़ेगा? हम तो उन्हें जानते ही नहीं।
लेकिन सेलिब्रिटी को तो हम जानते हैं। हम उनके प्रशंसक हैं। भले ही वे सेलिब्रिटी हमारी हैसियत पर हमारा तिरस्कार करें, फिर भी हम उन्हें भगवान् बना लेते हैं।
समय-समय पर हम खुद के प्रति दूसरों में संवेदनशीलता के अभाव पर दुखी होते हैं। लेकिन हम कितनी बार खुद की संवेदनशीलता का आंकलन करते हैं? क्या ऐसा नहीं कि हम केवल अपने और तथाकथित अपनों के लिए ही संवेदनशील होते हैं? इतना ही नहीं, हम तो अपनी पसंद के लिए भी बहुत संवेदनशील हैं। लेकिन जिनसे हमारा कोई वास्ता नहीं, जो हमारी निजी ज़िन्दगी को प्रभावित नहीं करते, जिनसे हमें कोई फ़ायदा नहीं हो रहा होता, क्या उनके लिए हम संवेदनाहीन नहीं?