परीक्षाओं का समय... बच्चों और माता-पिता की बढ़ती व्याकुलता का समय!
मार्च का महीना आने के साथ ही परीक्षाओं का समय भी निकट आने लगता है। और इसके साथ ही हमारे यहाँ लाखों बच्चों और उनके माता-पिता के दिलों की धड़कनें बढ़ने लगती हैं। रोचक है कि बच्चों का हौसला बढ़ाने वाले माता-पिता खुद उनसे भी अधिक व्याकुल होते रहते हैं।
हाँलाकि हम सब अपने बच्चों की काबलियत से भी पूरी तरह से परिचित होते हैं और उनकी कमज़ोरियों से भी। फिर भी परीक्षाओं के समय संभवतः हम उनसे आवश्यकता से अधिक उम्मीद लगाने लगते हैं और अपने साथ-साथ उनकी स्वाभाविक सहजता भी छीन लेते हैं!
हमारी यही उम्मीद, ऊँची अपेक्षाएँ, दूसरों से तुलना बच्चों के मन को तनाव से भरने लगती हैं। जिससे कई बार वे अपनी स्वाभाविक क्षमताओं के अनुसार भी परीक्षा में प्रदर्शन नहीं कर पाते।
बच्चों पर अच्छे रिज़ल्ट का दबाव बनाने से उनकी एक परीक्षा का परिणाम भले ही अच्छा आ जाए, लेकिन लगातार बने हुए दबाव से उनके व्यक्तित्व पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है। मुझे महसूस होता है कि सबसे पहले तो हमें यह याद रखना चाहिए कि स्कूल स्तर की पढ़ाई जीवन-पथ की पहली सीढ़ी ही है, जीवन की मंज़िल नहीं। इस स्तर पर मिले परिणाम हमारे जीवन को बस एक कदम आगे ही बढ़ाते हैं, हमारा जीवन तय नहीं करते।
माता-पिता के लिए दूसरी विचारणीय बात है, कि क्या हम सब अपने जीवन में कुछ भी नहीं कर सके? क्या हमने अपनी-अपनी काबलियत के अनुसार जीवन में कुछ नहीं किया? यदि हाँ, तो क्या हम सब बचपन में टॉपर थे? यदि टॉपर न होते हुए भी हम अपने जीवन में कुछ मुकाम हासिल कर सके, तो क्या हम अपने बच्चों को भी अपने अनुभवों के अनुसार मार्गदर्शन नहीं दे सकते?
हमारे लिए आवश्यक यह है कि हम अपने बच्चों को मन लगाकर, ईमानदारी से पढ़ने के लिए प्रेरित करें। उनपर दबाव बनाने के बजाय उन्हें अपनी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए प्रेरित करें। उनको निर्देशों के बोझ तले दबाने के बजाय उनसे बातचीत करें। उनके मन को समझें तो उनका तनाव भी दूर हो सकेगा, और वे बेहतर प्रदर्शन भी कर सकेंगे, और तो और, फिर हम अपने मन की भी उन्हें समझा सकेंगे।
बच्चों को तनाव और बोझ से बचाने के लिए सबसे पहले हमें खुद अपने दिलो-दिमाग से ये बात निकालनी होगी कि हमारे बच्चे के अंक सबसे अच्छे होने चाहिए। इसके विपरीत, ज़रूरत है कि हम उन्हें ये समझाएं कि वे जो भी काम करें, जितना भी पढ़ें, दिल लगाकर पढ़ें।
क्योंकि अक्सर बचपन में तो बच्चे पढ़ाई में बहुत अच्छे होते हैं, लेकिन बड़े होते-होते उनका मन उचटने लगता है। इसलिए ज़रूरी है, एक ओर तो हम उनको शिक्षा का महत्व समझाकर पढ़ाई की ओर प्रेरित करें, और दूसरी ओर, ये भी हमारा ही दायित्व है कि हम उनसे बातें करके उनकी रुचियों को समझने की कोशिश करें। उनकी रुचियों को भी उतना ही महत्व दें, जितना कि शिक्षा को, क्योंकि यदि शिक्षा व्यावसायिक जीवन के लिये ज़रूरी है, तो रुचियाँ उस जीवन में खुशियाँ बनाये रखने के लिये। और, कई बार उनकी रुचियाँ ही उनका व्यावसायिक जीवन भी तय करती हैं। हम सब अच्छी तरह से समझते हैं कि अगर मन खुश नहीं, संतुष्ट नहीं, तो व्यावसायिक सफलता में भी दम घुटने सा लगता है।
ऐसा नहीं है कि मैं इस बात को नहीं मानती कि आज व्यावसायिकता की अंध-दौड़ में आगे रहने के लिये बच्चे अनायास ही अंकों की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। और देखा जाये, तो यदि स्वस्थ प्रतियोगिता तक ये भावना सीमित रहे, तो बहुत अच्छा भी है, क्योंकि तभी तो बच्चे तरक्की करेंगे, भविष्य के लिये खुद को तैयार कर पाएंगे। लेकिन आमतौर पर ये प्रतियोगिता अंध-दौड़ का रूप ले लेती है, और इसके बहुत ही घातक परिणाम नज़र आते हैं। इसलिए, एक और बात बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है कि माता-पिता के रूप में खुद हम खुद अपने बच्चे की असल काबलियत को समझने की कोशिश करें और उसे स्वीकारें।
एक बार की सफलता या असफलता से जीवन बनता या बिगड़ता नहीं, इसका अनुभव हम सभी को है, और ये बात हम सभी को खुद याद भी रखनी है, और साथ ही अपने बच्चों को भी समझानी है। इसलिए ज़रूरी है कि कि एक असफलता से निराश होकर बैठ न जाएँ, और न ही एक सफलता से खुश होकर आगे सारे प्रयास ही बंद करे दें। हमें उनके साथ बातचीत के दौरान समझाना है कि शिक्षा का ये दौर जीवन की नींव होती है, इसी आधारशिला पर जीवन की ईमारत खड़ी होती है, इसलिए उन्हें इस आधारशिला को मज़बूत बनाने की ज़रूरत है। सब्र और धैर्य के साथ!
किसी एक सफलता को केवल एक कदम की तरह समझें, मंज़िल नहीं! और असफलता को सबक की तरह लें, उससे हताश होने के बजाये अपनी कमियों का मूल्यांकन करने की कोशिश करें। इससे एक ओर तो निराशा का अँधेरा नहीं घेरेगा, और दूसरी ओर आगे की परीक्षाओं के लिये ज़्यादा बेहतर तरीके से तैयार हो सकेंगे। हमें उन्हें ये भी समझाने की ज़रूरत है कि ज़िंदगी तो परीक्षाओं का ही दूसरा नाम है। एक सफलता का अर्थ है, कि हमने एक चरण पार कर लिया, और सफलता नहीं पाने का केवल यही मतलब है कि हमें उस चरण के लिये कुछ और तैयारी करनी है। इनमें से कोई भी चरण मंज़िल नहीं, केवल रास्ते ही हैं।
हम लगातार, नियमित रूप से इस तरह की बातों को ध्यान में रखकर यदि बच्चों से अपने विचार साझा करते रहें, तो वे भी अपनी इच्छाओं, अपनी सोच से आपको ज़रूर वाकिफ़ करायेंगे! और आपकी ये दोस्ती, न केवल परिवार में एक स्वस्थ माहौल तैयार करेगी, बल्कि आपके बच्चे का भविष्य भी उज्ज्वल बनाएगी।
शुभकामनाएँ!
Behad samyik post
शुक्रिया, विधुकांत जी