भूमिका -
जब हम ज़िद करते हैं कि सड़क के सारे कुत्तों को मारकर भगा दो, बिल्लियों को भगा दो, गाय-बैल, भैंस काट डालो या हाथियों को बारूद खिलाकर मार डालो, क्योंकि हम इतने ग़रीब हैं कि उन्हें खाना नहीं खिला सकते, तो हम निश्चित रूप से सृष्टि के रचयिता की रचना को समझ ही नहीं रहे हैं, पर्यावरण संतुलन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और बहुत सारे जीवों को विलोप की ओर धकेलने का प्रयास कर रहे हैं।
“प्रकृति दर्शन” पत्रिका के सितंबर, 2024 का अंक इसी विषय पर केंद्रित है। अनेक ज्ञानवर्धक और विचारणीय लेखों के साथ अपना भी एक लेख प्रस्तुत है –
क्या हमारे पर्यावरण के लिए आवश्यक नहीं थे वे, जो गुम हो गए?
कुछ काल-चक्र ने और प्रकृति की अपनी आवश्यकताओं ने तो कुछ पर्यावरण के बदलते रूप ने, ग्लोबल वार्मिंग के प्रकोप ने, तो कुछ हमारी अपनी भूल ने प्रकृति के बहुत से जीवों को खो दिया, हमेशा-हमेशा के लिए।
हमारी भूल ऐसी कि किसी से उनका प्राकृतिक आवास (नेचुरल हैबिटैट) छीन लिया, किसी से उनका भोजन छीन लिया तो किसी को अपना भोजन ही बना लिया।
आज भी बहुत से ऐसे जीव-जंतु हैं जो धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं, जिसके लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार है, पर्यावरण के प्रति हमारी लापरवाही और अनावश्यक छेड़छाड़।
अधिक दुःखद स्थिति यह है कि अनेक जीवों की प्रजातियाँ तो मनुष्यों के अंधविश्वास की बलि भी चढ़ते जा रहे हैं।
भारतीय परंपरा में माना जाता है परमात्मा ने स्वयं अपनी ही प्रकृति से जड़-चेतन युक्त सृष्टि का सृजन किया। जो प्रकृति स्वयं परमेश्वर का अंश है, उसके साथ छेड़छाड़ करना मनुष्य के लिए कहाँ तक उचित था? संभवतः बिलकुल भी उचित न था, लेकिन तथाकथित ‘प्रगतिशील’ एवं ‘आधुनिक’ विचारों वाले मनुष्य ने इन बातों पर ध्यान देना उचित नहीं समझा। फलस्वरूप, प्रकृति के अनेक अंश काल की भेंट चढ़ गए।
पर्यावरण संतुलन में जैव-विविधता का महत्त्व
माना जाता है कि लाखों वर्ष पुरानी हमारी सृष्टि का सबसे पुराना जीव नील हरित शैवाल है। यह पहला ऐसा जीव है जिसने सूरज की रोशनी और जल के प्रयोग से अपने भोजन का निर्माण किया था। इस प्रक्रिया से उत्पन्न हुई ऑक्सीजन गैस वायुमंडल में फैलने लगी जिसके कारण अन्य जीवों का विकास हुआ।
इस बीच अनेक जीव-जंतुओं ने धरती पर जन्म लिया। बहुत से यहाँ बसे रहे, लेकिन बहुत से ऐसे हैं जो समय के लुप्त हो गए। देखें, कैसे थे वे जो लुप्त हो गए!
वे जो खो गए
सबसे पहला नाम आता है दाँतों वाले, खूँखार दिखने वाले शेर, जिन्हें सेबर टूथ कैट कहते हैं। तलवार जैसे नुकीले दाँतों वाली इस प्रजाति के अस्तित्त्व के प्रमाण उन्नीसवीं सदी में ब्राज़ील में मिले उनके जीवाश्म से मिले हैं। माना जाता है कि ये अत्यधिक विशालकाय और दूसरी प्रजातियों के पशुओं की तुलना में बहुत अधिक भारी थे। आज तक किसी को नहीं पता कि इतने ताक़तवर जीवों का अंत कैसे हो गया। बस संभावना जताई जाती है कि जलवायु परिवर्तन और मनुष्यों के साथ संघर्ष के कारण ये धीरे-धीरे समाप्त हो गए होंगे। यह भी माना जाता है कि शायद इनके शिकारों के लुप्त हो जाने से इन्हें भोजन की कमी होने लगी होगी और धीरे-धीरे ये समाप्त हो गए होंगे।
लुप्त होने के कोई भी कारण हों, विचारणीय है कि पारिस्थितिकी के लिए इनकी मौजूदगी ज़रूर महत्त्वपूर्ण रही होगी, और यदि भोजन की कमी से इनका लोप हो सकता है, तो यह संकट वर्तमान विशालकाय जंतुओं पर भी आ सकता है।
शेरों के बाद बात करें विशालकाय हाथियों की। हमारे वर्तमान हाथियों की तुलना में और भी अधिक विशालकाय, ऊनी मैमथ के लिए माना जाता है कि लाखों वर्ष ये पहले अफ़्रीका से बाहर दूसरे महाद्वीपों पर पहुँचे थे। इनकी ऊँचाई चार मीटर से अधिक होती थी, यानी लगभग तेरह-चौदह फ़ुट – एक मंज़िल के घरों से भी ऊँचे! मखमली रोएँ से ढँके इनकी सूँड़ और दाँत भी बहुत अधिक विशाल होते थे। कहते हैं लगभग 10,000 साल पहले मनुष्यों के साथ संघर्षों के कारण इनका अंत हो गया था।
वर्तमान परिस्थितियों पर विचार करते हुए यही प्रतीत होता है कि इनके सामने भी भोजन की वैसी ही समस्या आई होगी, जैसी हमारे वर्तमान हाथियों के सामने आती है। यदि आज हमारे समाज को हाथियों का भोजन भारी लगता है, तो हो सकता है इन विशालकाय हाथियों के लिये भोजन की और अधिक गंभीर समस्या आई हो। माना जाता है इन विशाल जीवों की अंतिम आबादी लगभग चार हज़ार साल पहले आर्कटिक महासागर में पाई गई थी।
जब विलुप्त प्राणियों की चर्चा चलती है तो सबसे अधिक बात होती है डोडो पक्षियों की। इनकी तस्वीर केवल इनके वर्णन के आधार पर उकेरी जा सकी है। साहित्य में इनका वर्णन तो मिलता है, लेकिन जीवाश्म जैसे कोई साक्ष्य नहीं मिलते।
मॉरीशस के आसपास निवास करने वाले, लगभग एक मीटर लंबे ये पक्षी उड़ नहीं पाते थे। इनका वज़न लगभग 10 से 12 किलो होता था। 17वीं सदी के कुछ चित्रों और लिखित वर्णन से इनके बारे में पता चलता है।
माना जाता है कि बीज, फल आदि खाने वाले इस पक्षी का अंत भी भोजन की कमी के कारण हुआ होगा। वर्ष 1598 में डच नाविकों ने पहली बार इनके बारे में लिखा था। कहते हैं कि इनके लुप्त होने के पीछे शिकार भी एक बड़ा कारण है। माना जाता है इन्हें अंतिम बार वर्ष 1662 में देखा गया था।
इसी तरह उल्लेख मिलता है उत्तरी अटलांटिक से उत्तरी स्पेन तक पाए जाने वाले पक्षी ग्रेट ओक का। कहते हैं इनकी औसत ऊँचाई लगभग 75 से 85 सेमी और वज़न लगभग पाँच किलो होता था। ये पक्षी उड़ते नहीं थे, लेकिन बहुत ही बेहतरीन तैराक होते थे। फलतः, ये अपना शिकार पानी में ढूँढ लेते थे। कहते हैं इन पक्षियों को अंतिम बार उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में देखा गया था और 1835 तक ये पूरी तरह से लुप्त हो चुके थे। कहते हैं, इनके बचे हुए पक्षियों को स्कॉटलैंड में तीन लोगों ने मार दिया था, जिसके साथ ही ये पक्षी प्राणी जगत के लिये बस इतिहास बनकर रह गए।
अब बात करते हैं, समुद्री गाय की, जिसे स्टेलर सी काऊ कहते हैं। कहते हैं, वर्ष 1741 में पर्यावरणविद जॉर्ज स्टेलर ने इस प्राणी की खोज की थी। 8-9 मीटर लंबे और लगभग आठ से दस टन वज़न वाले ये विशालकाय समुद्री जीव शाकाहारी होते थे। अलास्का के दक्षिण-पश्चिम में पाए जाने वाले ये जीव बहुत ही मिलनसार होते थे। माना जाता है कि सरल स्वभाव वाले ये प्राणी अपने बड़े शरीर को छुपा नहीं पाते थे, और हालात ने इन्हें मानव का भोजन बना दिया होगा। कहते हैं उस क्षेत्र को जब इन प्राणियों के बारे में पता चला उसके 27 वर्षों के भीतर ही इनका शिकार करके इन्हें पूरी तरह से लुप्त कर दिया गया।
इसी तरह ऑस्ट्रेलिया, तस्मानिया और न्यू गिनी में विशाल मांसाहारी जीव पाए जाते थे, जिन्हें तस्मानियन टाइगर का नाम दिया गया। हालाँकि ये थोड़े बड़े आकार के कुत्ते जैसे दिखते थे, लेकिन इनके शरीर पर गहरे रंग की धारियाँ पड़ी होती थीं, जिनके कारण इन्हें टाइगर का। आम मिला। ये प्राणी बीसवीं सदी की शुरुआत तक मिले हैं। लेकिन मानव द्वारा बड़ी संख्या में शिकार करने के कारण ये लुप्त हो गए।
इसी तरह बीसवीं सदी की शुरुआत तक उत्तरी अमेरिका में पैसेंजर पिजन (कबूतर) तीस से चालीस लाख तक की संख्या में पाए जाते थे। लेकिन वहाँ यूरोपीय लोगों के आने के बाद इन कबूतरों का शिकार इंसानी भोजन के लिए होने लगा और देखते ही देखते ये लुप्त हो गए।
लुप्त हो गए जीवों की बात करें या लुप्तप्राय जीवों की, उनके लोप में प्रमुख भूमिका इंसानी इच्छाओं की ही नज़र आती है। जो इंसान अनाज उगाकर भी खा सकता था, फल और सब्ज़ियाँ भी खा सकता था, उसे दूसरे प्राणियों के शिकार करके ही भोजन करने की ज़िद थी। ऐसा नहीं कि अब यह ज़िद समाप्त हो गई है। आज भी यह ज़िद जारी है जिसके फलस्वरूप और भी बहुत से प्राणी हमारी सृष्टि से लुप्त होते जा रहे हैं।
इसी तरह पाईरेनियन आईबैक्स बकरी, बैजी श्वेत डॉल्फ़िन, और पश्चिमी अफ़्रीका में पाए जाने वाले केल गैंडे जैसे अनेक प्राणी हैं, जो कभी धरती की शोभा हुआ करते थे, पर्यावरण संतुलन में अपनी कोई न कोई भूमिका ज़रूर अदा करते रहे होंगे, लेकिन आज केवल किताबों के पन्नों में बचे रह गए हैं।
वे जो कुछ ही समय पहले गुम हो गए –
ऐसा नहीं कि प्राणियों के लुप्त होने का चलन केवल सौ साल पहले तक ही था और अब मानव समाज जागरूक हो चुका है। आज भी बहुत सी ऐसी प्रजातियाँ हैं जो धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। जिनमें से प्रमुख नाम आता है गोल्डन टोड का। कोस्टा रिका में पाए जाने वाले ये सुनहरे रंग के मेंढक पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में अहम् भूमिका निभाते थे। लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या कम होने लगी और हाल में ही 2019 तक ये पूरी तरह से नष्ट हो गए। बदलती जलवायु के साथ ये जीव सामंजस्य नहीं बना सके और धीरे-धीरे इनकी प्रजनन क्षमता कम होने लगी। फिर, एक समय ऐसा आया जब ये पूरी तरह से लुप्त हो गए।
इसी तरह पिंटा द्वीप के कछुओं को भी वर्ष 2015 में विलुप्त घोषित कर दिया गया। इनके लोप होने की बहुत चर्चाएँ हुई थीं, लेकिन प्रजाति को बचाने के प्रयास सार्थक न हो सके।
पहाड़ी मिस्ट मेंढकों को वर्ष 2021 में लुप्त घोषित किया गया। इनके अंत का प्रमुख कारण एक महामारी थी, जो इंसानी गतिविधियों के कारण ही फैली थी। इस फ़ंगल (कवकीय) संक्रमण ने इन मेंढकों की त्वचा को प्रभावित किया, जिसके फलस्वरूप बड़ी संख्या में मेंढकों की प्रजाति प्रभावित हुई।
इसी तरह, शेर, टाइगर, चीता, हाथी, पांडा, कछुआ, गेंडा, बहुत से ऐसे जीव हैं, जो धीरे-धीरे लुप्त होने के कगार पर हैं। यही नहीं, मधुमक्खी, पोलर बियर, पैंगोलियन, और डॉलफिन तक लुप्तप्राय हो रहे हैं। यदि समय से सचेत न हुए होते तो हमने गौरैया को भी खो ही दिया था।
संरक्षण आवश्यक –
प्रकृति का सृजन कुछ इस तरह से हुआ है कि इसके सभी प्राणी अपनी-अपनी भूमिका अदा करते रहते हैं। केवल मनुष्य है जो अपने कार्यक्षेत्र में सीमित न रहकर दूसरों के अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण करता है।
भारतीय शास्त्रों में कहा गया है कि प्रकृति का हर सजीव अंग परोपकार के लिए जीता है – “वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाता और नदियाँ स्वयं अपना पानी नहीं पीतीं,” लेकिन मनुष्य न केवल अपने द्वारा उपजाई गई सामग्रियों का उपयोग स्वयं के लिये। आई करता है बल्कि अन्य जीवों को मारकर भोजन-श्रृंखला में भी अवरोध उत्पन्न करता है।
अधिकतर जीव-जंतु अपने स्थानीय पारिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखने का काम करते हैं, लेकिन उनके लोप हो जाने से वह संतुलन बिगड़ने लगता है, नतीजा हमारे सामने आता है – आज हम ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से जूझ रहे हैं, कहीं अति वृष्टि से बाढ़ की आपदा और कहीं वर्षा के अभाव से सूखे का सामना कर रहे हैं। वृक्षों की कमी न केवल ऑक्सीजन की कमी उत्पन्न कर रही है बल्कि भूमिगत जल का स्तर भी गिरा रही है। जंगलों का अभाव प्राणी-जगत से उनका प्राकृतिक आवास छीन रहा है।
भारतीय परंपरा –
क्या आप जानते हैं, जलवायु और भौतिक स्थितियों की जबरदस्त विविधता रखने वाले भारत में जीवों की बहुत विविधता है, जिनकी संख्या 92,037 प्रजातियाँ हैं, जिनमें से अकेले कीटों की 61,375 प्रजातियाँ शामिल हैं।
यदि हम प्राचीन भारतीय मनीषियों के विचारों पर ध्यान दें तो हमारे यहाँ हर प्राणी, हर वनस्पति को पूजनीय बनाया गया, ताकि मनुष्य उनको नुक़सान न पहुँचाए, बल्कि उनका सम्मान करते हुए उनका संरक्षण करे। किंतु, तथाकथित आधुनिकता ने बहुत बार हम भारतीयों को भी प्रभावित किया है, जिसका असर हमारे यहाँ भी पर्यावरण के असंतुलन के रूप में नज़र आता है।
तो क्यों न हम अपने प्राचीन शास्त्रों की ही बात मान लें। उनके वैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार करें। समझें कि पूजने का अर्थ इन प्राणियों को तिलक लगाकर उनकी आरती उतरना नहीं, बल्कि उनका सम्मान करना है। उनका संरक्षण करना है। इतना बोध हो सका, इतना सजग हो सके, तो शेष परिस्थितियों को सँभाल सकते हैं।
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