14 – 18 सितंबर
दिल्ली-बेंगलुरु-ऊटी-मैसूर-बेंगलुरु और फिर वापस दिल्ली
कुछ अफ़रा तफ़री में ही प्रोग्राम बना, और हम तीन, मैं, ममता और अंजू, पहुँच गए दीप्ति के पास बेंगलुरु। दीप्ति के घर पहुँचते-पहुँचते रात के क़रीब साढ़े आठ बज गए थे। सुबह पाँच बजे ऊटी जाने के लिए हमारी कैब बुक थी, इसलिए सभी का गंभीर सुझाव यही था कि खाना खाकर हम सभी को तुरंत सो जाना चाहिए… आख़िर हम सब सारे दिन के सफ़र से थके थे और अगले दो दिन भी घूमना-फिरना ही था!
लेकिन गंभीर सुझाव अपनी जगह होता है, और दोस्तों का मिलना अपनी जगह! बातें ख़त्म कहाँ होती हैं? स्कूल से हम सब साथ हैं… बीच में घर-परिवार-करियर वगैरह की व्यस्तता हुई, और साथ ही भौगोलिक दूरी भी रही… अब समय के साथ व्यस्तता पर रोक लगाना जैसे हम लोग सीखने लगे हैं और भौगोलिक दूरियों को तय करना भी आसान लगने लगा है! तो अब मिलना-जुलना भी बढ़ने लगा… फिर भी, बातें ख़त्म नहीं होतीं! तो बस, जल्दी सोने की तमाम कोशिशों के बावजूद हम सब कम से कम बारह-साढ़े बारह तक तो जागते ही रहे… और, इसका नतीजा यह हुआ कि हमें भेजने को मुस्तैद उत्कर्ष जी (दीप्ति के पति) तो सुबह-सुबह तैयार, लेकिन हम ही थोड़े सुस्त! ख़ासतौर पर मैं! खैर, पाँच की जगह क़रीब छः बजे निकले… लेकिन फिर भी, बेंगलुरु की सड़कें व्यस्त होतीं इससे पहले ही शहर पार कर लिया।
रास्ते में कामत के मशहूर रेस्टोरेंट में स्वादिष्ट दक्षिण भारतीय नाश्ता किया, फ़िल्टर कॉफ़ी पी और आगे बढ़े।
बांदीपुर टाइगर रिज़र्व और फिर मुदुमलाई वनीय राष्ट्रीय उद्यान हमारे रास्ते में पड़े… दूर-दूर तक विस्तृत प्राकृतिक छटा… ऐसी कि हम चार दोस्त भी अपनी बातें भूलकर उसी ख़ूबसूरती में गुम होने लगे! ऊँचे-ऊँचे पेड़ और उनके बीच कभी कहीं कुछ हिरण तो कहीं-कहीं एक-दो हाथी! ढेर सारे बंदर, यहाँ वहाँ उछल-कूद करते, और बहुत ही ख़ुशनुमा मौसम! दोनों प्राकृतिक उद्यानों को पार करने में ज़रूर ही अच्छा खासा समय लगा होगा, लेकिन मौसम और प्राकृतिक छटा ऐसी थी कि हमें यही महसूस हुआ कि बस कुछ ही पलों में हमने वह रास्ता पूरा तय कर लिया।
बेंगलुरु से ऊटी का रास्ता क़रीब पाँच-छः घंटों का है, लेकिन एक तो ख़ूबसूरत रास्ता, उसपर उतना ही सुंदर साथ! रास्ता बिलकुल पता ही न चला और हम बारह बजे दोपहर के आसपास ऊटी पहुँच गए। दो कमरों की एक ख़ूबसूरत हेरिटेज कॉटेज में ठहरने का पूरा सुख लिया… जहाँ लगा ही नहीं कि हम घर पर नहीं हैं।
दिल्ली की गर्मी से निकलकर बेंगलुरु के ख़ुशनुमा मौसम से गुज़रते हुए ऊटी की ख़ूबसूरती तक पहुँचने का सफ़र बेमिसाल ही था। यहाँ पहुँचने तक थकान अपने आप ही निकल चुकी थी। यहाँ का मशहूर बोटैनिकल गार्डन देखा गया, और स्कूल की उम्र वाली कुछ शरारतें भी ख़ुद-ब-ख़ुद होती चली गईं। शाम को ऊटी की छोटी-सी लेकिन प्यारी सी मार्किट भी घूमे… हलकी बारिश में एक शॉप से दूसरी शॉप तक जाने का आनंद ही अलग था!
यहीं हमने एक अनूठा रहस्य खोज डाला… ‘छतरी लेकर घूमना तो अंग्रेज़ियत की निशानी है! भारत में तो बारिश में भींगने का रिवाज़ है!’ तो इस विचार पर अमल करते हुए हम बारिश की बूँदों से अपने सिर बचाते एक दूकान से दूसरी पर जाते रहे! फिर एक अच्छे से रेस्टोरेंट में बैठकर फ़िल्टर कॉफ़ी पी गई और इस बहाने फिर से ढेर सारी बातें कर ली गईं।
ऊटी की हैण्डमेड चॉकलेट बहुत मशहूर हैं… तो हमने एक दूकान से ढेर सारी चॉकलेट लीं, ताकि घर पहुँचकर बच्चों को दिया जा सके। अँधेरा होने पर हम लोग अपनी कॉटेज में लौटे। अब बारी थी फिर से बातों में खो जाने की! दिन भर खींची गई फ़ोटो भी एक-दूसरे को भेजनी थी! हाथ के हाथ तस्वीरों को हल्का-फुल्का एडिट भी करते जाना था, ताकि दूसरों को यह मेहनत न करनी पड़े… लेकिन फिर बीच बीच में किसी एक तस्वीर पर चर्चा शुरू हो जाती और फ़ोटो एडिट-करने और भेजने का काम एक बार फिर रुक जाता।
फ़ोटो की संख्या और सुलभता देखती हूँ, तो आँखों के सामने वह ज़माना तैरने लगता है जब एक रोल में कोई 32-36 फ़ोटो बन पाती थीं… उनमें भी हमें यह पता नहीं होता था कि कौन सी फ़ोटो गड़बड़ आई होगी और कौन सी ठीक! बहुत सोच-विचार कर, पोज़ बनाकर कभी कोई एक फ़ोटो क्लिक की जाती थी, ताकि रोल बर्बाद न हो। और यहाँ, अभी एक दिन में ही क़रीब 40 फ़ोटो खींची जा चुकी थीं!
खैर, सोने के नाम पर फिर से बातें शुरू हुईं… और फिर तय किया गया कि अब कोई कुछ नहीं बोलेगा क्योंकि सुबह हम लोगों को कुन्नूर जाने के लिए टॉय-ट्रेन लेनी थी। सुबह जल्दी उठकर कॉटेज की ख़ूबसूरती को भी कैमरे में कैद किया गया और फिर नाश्ता करके हम ऊटी के छोटे से रेलवे स्टेशन पहुँच गए। अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर है, ऊटी से कुन्नूर का रास्ता! टॉय ट्रेन भी इसीलिए ली गई थी ताकि हम उस सुंदरता को अधिक से अधिक आँखों के ज़रिए अपने दिलों में उतार सकें!
वैसे तो इस ख़ूबसूरती को भी कैमरे में कैद करने की पूरी कोशिश की गई… लेकिन प्रकृति की बहुत सी सुंदरता, उसकी बारीक़ी और गहनता और उसकी व्यापकता जितनी आँखों से देखी जा सकती है, दिलों से महसूस की जा सकती है, उतनी कैमरे में कैद कर पाना कुछ कठिन ही लगता है!
कुन्नूर रेलवे स्टेशन पर हमारी कैब पहले ही पहुँच चुकी थी। दीप्ति ने तय किया था कि यहाँ से सीधे बेंगलुरु वापस न जाकर हम मैसूर का सुप्रसिद्ध महल देखते हुए जाएँगे। तो हम कुन्नूर से मैसूर के लिए रवाना हुए… रास्ते में फिर से मुदुमलाई वनीय राष्ट्रीय उद्यान और बांदीपुर टाइगर रिज़र्व पड़े, फिर से कुछ वनीय प्राणी देखने को मिले… और फिर, हम आगे बढ़े पहाड़ी की घुमावदार ढलान पर!
ममता इलाहाबाद से हम सबके लिए नेतराम की स्वादिष्ट मिठाई और नमकीन लाई थी। रास्ते में भूख लगने पर हम सबने बहुत स्वाद लेकर उसे चट किया था! लेकिन अब, इस घुमावदार पहाड़ी ढलान पर वह भी हमारे पेट में कहीं चक्कर काटने लगी! इस बार हम सबकी बोलती बंद थी! पेट में मिक्सी बनी हुई थी और खाई हुई सारी चीज़ें उबल-उबल कर ऊपर तक आना चाह रही थी… बस, अब तो मुँह बंद और गहरी साँस लेने का वक़्त था… ताकि सबकुछ अंदर ही उबले, बाहर छलकने न पाए!
समतल रास्ते पर पहुँचे तो सबने राहत की साँस ली और हँसी की जो फुहार छूटी वो थमने का नाम ही नहीं ले रही थी! खैर, अब तक थोड़ा थकने लगे थे, फिर भी मैसूर के राजमहल को देखने पहुँचे!
यहाँ की सुंदरता ने एक बार फिर थकान मिटा दी… वास्तु-शिल्प के इस अद्भुत नमूने को हम बस देखते ही रह गए… दीवारें, छतें, आलीशान नक्काशी के दरवाज़े, दीवारों पर आइनों का ऐसा उत्कृष्ट उपयोग, कि सामने अनेक छवियाँ उभरकर शीशमहल का सा अहसास दें! भव्य हॉल, ख़ूबसूरत मेहराब और बेहतरीन पिलर… ऐसी उच्चकोटि का शिल्प जो बेवजह ही विश्व-विख्यात नहीं! महल में दशहरे की तैयारी चल रही थी और सबका यही कहना था कि यदि हम लोग दशहरे में आते तो यहाँ की सुंदरता और भी अधिक देखने लायक होती! (हम 16 सितंबर को वहाँ थे) क्योंकि दशहरे में वहाँ पूरा महल जगमगाती लाइट से रौशन किया जाता है! हालाँकि हम सब उसी सुंदरता को कुछ दिलों में और कुछ कैमरे में कैद करते हुए भी ख़ुश थे। बाहर निकलकर फ़ोटो खिंचवाने लगे तो देखा, अचानक महल के आधे भाग में लाइट जल उठीं… तैयारी के लिए बिजली की जाँच चल रही होगी, और हमें इसी बहाने आधी सुंदरता को देखने का भी मौका मिल गया!
अब हमने भूख महसूस की, और आसपास कुछ खाने के लिए तलाशना शुरू किया… हालाँकि उत्तर भारतीय होने के नाते दक्षिण भारत में हम हर समय डोसा-इडली वगैरह खाने के चक्कर में रहते हैं, लेकिन दक्षिण में शाम के समय डोसा-इडली की उम्मीद नहीं कर सकते… इसलिए मैसूर में आलू के परांठे खाने का आनंद लिया गया और वापस बेंगलुरु के लिए रवाना हो गए!
अगला पूरा दिन हम सबने दीप्ति के घर पर ही बिताया। प्राकृतिक ख़ूबसूरती से घिरा उसका घर भी ऐसा है कि कहीं और जाने की ज़रुरत ही नहीं थी! एक बार फिर बहुत सारी बातें, बहुत सारी फ़ोटो और अगले दिन निकलने की तैयारी!
अगले दिन सुबह पाँच बजे निकलना था, इसलिए जल्दी सोना था… वो बात अलग है कि फिर से साढ़े बारह से अधिक तो बज ही गए थे! खैर, वापस आने की अपनी जल्दी रहती है… घर पर छूटे हुए काम पहले ही आकर मन पर दस्तक देने लगते हैं, इसलिए सुबह अलार्म से पहले ही नींद खुल गई!
और फिर वापस घर! अपने-अपने दिलों में दोस्तों के साथ की यादें समेटे… बेफ़िक्र से माहौल में बिताए कुछ पलों को लिए, सब वापस अपने-अपने काम में!
लेकिन यादें रह जाती हैं… कभी, किसी समय माता-पिता से मिलने के बाद महसूस होता था, जैसे कोई बीमारी लेकर लौटी हूँ… उनकी यादों की बीमारी! दोस्त भी कई बार संक्रामक सी बीमारी बनने लगती हैं! आप दूर रहें, अपने काम में व्यस्त रहें, तो सब ठीक ही चलता रहता है! लेकिन कुछ दिन, कुछ पल साथ बिता लें, तो यादों की बीमारी घर कर लेती है!
तो बस, इसी बीमारी को लिए वापस अपने काम-काज में जुट गई! अब तो एक महीना होने को है, और हम सब फ़िराक में हैं, कि कब, किस बहाने फिर से मिलने का प्रोग्राम बन जाए!