1983 में कपिल देव की कप्तानी में भारत ने विश्व कप जीतकर भारतीय क्रिकेट की दुनिया में एक नया, अकल्पनीय इतिहास रचा था... आजकल इस पर एक फ़िल्म बन रही है। जब भी फ़िल्म की चर्चा होती है, मेरे जैसे बहुतेरे लोग अतीत की दुनिया में खोने लगते होंगे!
क्रिकेट की बात चलती है तो सबसे पहले अपने उस बचपन की बात याद आती है, जब मैं शायद 2-3-4 साल की थी! उस समय, जब क्रिकेट टेलिविज़न पर नहीं देख पाते थे, रेडियो पर क्रिकेट की कमेंट्री सुनी जाती थी। बहुत छोटी थी, क्रिकेट का बुखार तो नहीं चढ़ता था, लेकिन न मालूम क्यों मदनलाल की फ़ैन बन गई थी। उस समय इतनी भी समझ नहीं थी कि मदनलाल गेंदबाज़ हैं, बल्लेबाज़ी के महारथी नहीं। उस उम्र में मुझे केवल बल्लेबाज़ी ही समझ में आती! तो होता यह, कि जैसे ही मदनलाल खेलने आते (जो कि बहुत कम होता था, क्योंकि वह शायद आठवें या नौंवे नंबर पर आते), मेरे बड़े भाई-बहन मुझे आवाज़ देकर बुलाते, और कई बार जब तक मैं अपने खेलकूद से छुटकारा पाकर रेडियो तक पहुँच पाती मदनलाल आउट भी हो जाते! और फिर तो बस, मैं ऐसे उदास हो जाती जैसे कोई बहुत धुरंधर बल्लेबाज़ आउट हो गया हो और सारे भाई-बहन मुझपर ख़ूब हँसते।
खैर, जब तक थोड़ी बड़ी हुई कपिल देव खेलने आ चुके थे और उनके पहले मैच से ही परिवार के अन्य लोगों के साथ ही मैं भी उनकी ज़बर्दस्त प्रशंसक बन गई। अब तक क्रिकेट का खेल काफी हद तक समझ में आने लगा था...
(यानी, क्रिकेट से जुड़े सारे वहम मेरी भी ज़िन्दगी में शामिल हो गए... मैं देखूँगी तो मैच जीतेंगे, नहीं देख सकी तो हार जाएँगे... किसी के आते ही अपनी टीम की विकेट गिर जाएगी, और किसी के आने पर भारत की ओर से चौके-छक्के पड़ने लगेंगे, वगैरह-वगैरह....)
इसी दौरान, भारतीय क्रिकेट का रूप बदला, हालात बदले और 1983 का वह ऐतिहासिक समय आया, जब कपिल देव की कप्तानी में हम लोगों ने विश्व कप जीतने का असंभव जैसा लगने वाला काम किया! और, याद रहे, इस टूर्नामेंट में मदन लाल भी खेले थे, और उन्होंने गेंदबाज़ी में ही नहीं ज़रूरत पड़ने पर बल्लेबाज़ी में भी अच्छा प्रदर्शन किया था!
इंग्लैण्ड में मैच हो रहे थे और वेस्ट इंडीज़ जैसे विश्व-विजेताओं के सामने भारत बौना सा लग रहा था। हमारा पहला ही मैच वेस्ट इंडीज़ के ख़िलाफ़ था, जो हम जीत गए थे। पूरे विश्व के साथ-साथ हम भारतवासी भी यही मान रहे थे, कि वह मैच हमने तुक्के में जीत लिया! इसके बाद एक के बाद दूसरे लीग मैच होते गए और हम वेस्ट इंडीज़ और ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ एक-एक मैच छोड़कर बाक़ी सभी मैच जीतते चले गए (दोनों ग्रुप में चार-चार टीम थीं और हर टीम को आपस में दो-दो मैच खेलने थे)।
इन्हीं में ज़िम्बाब्वे के ख़िलाफ़ वह ऐतिहासिक मैच हुआ जिसमें कपिल देव ने 138 गेंदों में 175 रन नाबाद बनाए, जिसमें 16 चौके और 6 छक्के शामिल थे... लेकिन इस शानदार पारी को केवल सुना ही गया, सीमित सेटलाईट राइट्स के कारण इसका टेलीकास्ट नहीं हुआ, और किन्हीं कारणों से इसकी रिकॉर्डिंग भी मौजूद नहीं है!
आज की हाई-टेक दुनिया में उस समय के ये हालात बहुतों को समझ में नहीं आएँगे!
लीग मैच में दूसरा स्थान लेने के साथ ही भारत सेमी-फ़ाइनल में पहुँच गया, जहाँ हमने इंग्लैण्ड को बेहतरीन ढंग से हराया!
अरे, यह क्या! हम फ़ाइनल में पहुँच चुके थे! ऐसा तो हमने सोचा नहीं था! या, सोचा था क्या? पता नहीं...
अब तो पूरे देश को यह मैच देखना ही था। आज के ज़माने में ये मैच हम अपने मोबाइल फ़ोन पर भी देख सकते हैं, लेकिन उस समय की दुनिया ही कुछ अलग थी!
हम लोग इलाहाबाद में रहते थे, और वहाँ टीवी टावर न होने के कारण हमलोगों के यहाँ टीवी नहीं था! फिर मैच कैसे देखा जाए? लखनऊ में बड़े भैया रहते थे। मेरी दीदी और दादा ने इच्छा ज़ाहिर की और हमारे माता-पिता ने हम तीनों भाई-बहनों को प्रमोद भैया के पास लखनऊ जाने की अनुमति दे दी। उस समय लखनऊ-इलाहाबाद के बीच गंगा-गोमती नहीं चलती थी, त्रिवेणी जाती थी, तो 23 जून, 1983 की सुबह, पाँच बजे की त्रिवेणी से हंम तीन भाई-बहन सुबह-सुबह लखनऊ के लिए रवाना हुए। ट्रेन खचाखच भरी थी और थोड़ी ही देर में इलाहाबादियों ने अपनी आदत के अनुसार आपस में बातचीत शुरू कर दी... चुप रहना प्रयागवासियों के स्वभाव में नहीं!
और उस बातचीत में समझ में आया कि उस दिन ट्रेन में सवार शायद नब्बे प्रतिशत लोग अपने किसी न किसी संबंधी के यहाँ टीवी पर भारत-वेस्ट इंडीज़ का मैच देखने जा रहे थे। क्या उत्साह था! लेकिन उत्साह में थोड़ा फीकापन भी था... बढ़ती उमंग बीच-बीच में कुछ कम भी हो जाती! वेस्ट इंडीज़ पिछले दोनों विश्व कप की विजेता ही नहीं थी, उनकी टीम विश्व-विजयी थी! जबकि हम पहले हमेशा ग्रुप मैच में ही पिछड़
जाते थे! उस पर, ग्रुप मैच में भी हम उससे एक बार हार चुके थे; एक मैच जीते तो थे,
लेकिन उसे हम ख़ुद ही तुक्का मान रहे थे!
फिर भी ट्रेन में लोगों के बीच अजब उत्साह था! इण्डिया जीतेगी के नाम पर आपस में बहसबाज़ी चल रही थी... कुछ व्यावहारिक दलीलें दे रहे थे, तो भावनात्मक उत्साह में थे! खैर, हम लखनऊ पहुँचे, जहाँ प्रमोद भैया और कूनो दीदी ने ख़ास इंतज़ाम किया था... शाम तक छोटी बुआ जी के यहाँ से भी सारी दीदी लोग आ गई थीं।
मैच देखने बैठे, और देखते ही देखते भारत 183 रन बनाकर सिमट गया।
इसके बाद वेस्ट इंडीज़ की बारी थी। 183 रन बनाना वेस्ट इंडीज़ के धुरंधरों के लिए मुश्किल काम नहीं था... वह भी जब विश्व कप फ़ाइनल का मामला हो! उन्हें तो अपनी जान लगा देनी थी! लेकिन हमारे यहाँ तो टेलीकास्ट के राइट्स ही नहीं थे! अब क्या? मन बुझे हुए थे...
दूरदर्शन ने अपने नियमित कार्यक्रम दिखाने शुरू कर दिए... उदास ख़ामोशी में हम सबने खाना खाया और चुपचाप दूरदर्शन के कार्यक्रम ही देखने लगे! वैसे तो घर में खीर भी बनी थी, लेकिन उतने उदास लोगों को खीर की इच्छा कहाँ थी? फ़िल्मों पर आधारित कोई कार्यक्रम आ रहा था, जिसमें उस दिन मीना कुमारी, गुरु दत्त साहब की साहब, बीवी और ग़ुलाम के दृश्य दिखाए जा रहे थे। एक तो मन अपनी टीम के स्कोर से पहले ही उदास था, उसपर इतने उदास दृश्य देख-देखकर हम सब और भी दुखी हो रहे थे। घर में हम कम से कम दस-बारह लोग रहे होंगे, लेकिन सबके सब ख़ामोश थे।
कुछ देर बाद स्क्रीन पर टीवी उद्घोषिका मुक्ता श्रीवास्तव मुस्कुराती हुई नज़र आईं और बोलीं, ‘अब हम आपको ले चलते हैं इंग्लैण्ड के लॉर्ड्स मैदान में जहाँ भारत-वेस्ट इंडीज़ का मैच एक रोमांचक मोड़ ले चुका है!’
हम सब जहाँ थे, वहीं उछल पड़े! यानी, कुछ कमाल हो चुका है! यानी, भारत जीत रहा है!
हालाँकि विवियन रिचर्ड्स अपने पूरे फ़ॉर्म में जम रहे थे, और बाज़ी पलट सकते थे, लेकिन फिर उनकी बाउंड्री को रोकता कपिल देव ने वह ऐतिहासिक, ज़बर्दस्त कैच लिया... जिसने न केवल भारत की जीत सुनिश्चित की, बल्कि आज तक यादगार कैच में से से एक बना हुआ है!
देखते ही देखते वेस्ट इंडीज़ की टीम मात्र 140 रन में सिमट गई! साठ ओवर के मैच में 183 रन में सिमटने वाली टीम मैच जीत जाए, यह बात किसी करिश्मे से कम नहीं थी!
हम सारे भाई-बहन टीवी के सामने धूम मचा रहे थे, पूरी कॉलोनी से जश्न मनाने की आवाज़ें आने लगीं थीं... इसके बाद अवार्ड देने की तैयारियाँ शुरू हो गईं और टीवी कैमरा सेट हो गया लॉर्ड्स की प्रसिद्ध बालकनी पर, जहाँ भारतीय टीम के खिलाड़ियों ने शैम्पेन खोलकर हवा में उड़ाई! अवार्ड समारोह में पहले हारने वाली टीम को अवार्ड दिए गये, फिर विजेताओं को! और, अंत में कपिल देव ने प्रुडेंशियल कप को
हाथ में लेकर जब ऊपर की ओर उठाया तब हम सभी को ऐसा लगा जैसे कोई असंभव सा सपना साकार हो गया हो!
आज जब हम अक्सर जीतते और हारते रहते हैं, तब इस भावना को समझ पाना लोगों के लिए थोड़ा कठिन होगा, लेकिन उस समय हमारी टीम विश्व स्तर पर कहीं
नहीं ठहरती थी, खिलाड़ी फ़िटनेस के लिए ख़ास मेहनत नहीं करते थे, फ़ील्डिंग पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते थे। केवल बल्लेबाज़ी और गेंदबाज़ी को ही क्रिकेट समझा जाता था, ऐसे समय में टीम को फ़िटनेस के लिए प्रोत्साहित करके, फ़ील्डिंग में सुधार लाकर विश्व कप जीतने का काम सपने जैसा ही था!
अवार्ड समारोह ख़त्म होते-होते काफ़ी रात हो गई। अब हम लोग ख़ुश थे तो खीर की भी याद आई! झटपट, देखते ही देखते सारी खीर चट कर दी गई! और सोने चले...
हमने अब तक अपने पसंदीदा क्रिकेट खिलाड़ियों की केवल तस्वीरें ही देखी थीं, अखबारों और पत्रिकाओं में... पहली बार टेलिविज़न पर ही सही, उन्हें चलते-फिरते, हँसते-बोलते, एक्शन में देखा था... वह भी ऐसी भव्य जीत के समय! अब, सोने के लिए आँखें बंद कीं तो सामने पूरी टीम नज़र आए! थोड़ी देर सोने की नाकाम कोशिश करके यह बात अपनी दीदी को बताई तो पता चला वहाँ सभी का यही हाल था! किसी की आँखों में नींद नहीं थी, सभी की आँखों के सामने सारे खिलाड़ी चलते-फिरते नज़र आ रहे थे!
आज, जब टीवी और इंटरनेट के ज़रिए मीडिया लोगों के निजी जीवन तक पहुँच चुका है, यह बात याद करके भी अजीब लगती है कि पहली बार टीवी पर अपने पसंदीदा खिलाड़ियों को खेलते और फिर विजयी होते और फिर जश्न मनाते देखने का अनुभव कितना अभूतपूर्व था!
इसके बाद जीत का जैसे सिलसिला ही चल निकला...
समय बदला, क्रिकेट व्यावसायिक हुआ, खिलाड़ियों को बेहतर आमदनी और सहूलियत भी मिलने लगीं... लेकिन समय का खेल, ज़िन्दगी की अफ़रा-तफ़री में क्रिकेट के लिए उत्साह जाता रहा... कहाँ तो एक-एक खिलाड़ी के निजी रिकॉर्ड भी याद होते थे, कहाँ आज ठीक से पूरी क्रिकेट टीम के नाम भी नहीं मालूम होते...
ऐसे में 1983 के उस टूर्नामेंट पर फ़िल्म निश्चित रूप से हम जैसे अनेकों लोगों की यादें तरोताज़ा कर देगी!
इंतज़ार है...
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