स्त्री-पुरुष के बीच समानता का मुद्दा उठते ही ऐसा लगता है जैसे समाज के दोनों पक्ष तलवार लेकर एक-दूसरे पर आक्रमण करने के लिये तैयार हो जाते हैं। घर-परिवार, व्यवसाय और समाज के अनेक रास्तों में एक-दूसरे के साथ और सहयोग करते हुए चलने वाले ये दोनों पक्ष इस मुद्दे के उभरते ही सहसा एक-दूसरे के दुश्मन से नज़र आने लगते हैं। जहाँ पुरुष अपनी बातों के तीरों से महिलाओं के आत्मसम्मान को घायल करते नज़र आते हैं, उनके स्वाभिमान को चुनौती दे डालते हैं, ‘महिलायें कभी पुरुषों जैसी हो ही नहीं सकती’, ‘जो काम पुरुष कर सकते हैं, वे महिलायें कर ही नहीं सकती’, ‘उन्हें तो पुरुष से सुरक्षा मिलती है, जबकि पुरुष को उनसे किसी तरह की सुरक्षा की ज़रूरत नहीं होती,’ तो जवाब में महिलायें भी ऐसे ही कठोर शब्दों की तलवारों के साथ मैदान में उतर आती हैं। लेकिन मज़ेदार बात तो ये है कि इस मतभेद का आधार ही ग़लत है! यहाँ ‘समानता’ शब्द का अर्थ थोड़े ग़लत ढंग से लिया गया है। वास्तव में देखा जाये तो ‘समानता’ का ये अर्थ बिलकुल भी नहीं है कि महिला और पुरुष एक समान होते हैं, वे तो एक दूसरे से बिलकुल ही अलग होते हैं, प्रकृति में भी, स्वभाव में भी और रचना में भी। ‘समानता’ से तो तात्पर्य है, ‘समान अधिकारों’ का, ‘समान अवसरों’ का, और ‘समान व्यवहार एवं सम्मान’ का।
किसी कथन के तात्पर्य को अगर ठीक तरीके से न समझा जाये तो बेवजह तकरार की स्थिति पैदा हो सकती है, और ये इसी बात का एक उदाहरण है! अगर किसी शब्द या तथ्य को घुमा-फिराकर पेश किया जायेगा, या समझा जाएगा तो निश्चय ही हम असल मुद्दे से भटक जायेंगे और ढेरों तर्क-वितर्क के साथ-साथ अनेक कुतर्क सामने आयेंगे, और एक सामान्य सा मुद्दा मतभेद का कारण बन जायेगा। इस बहस का कारण भी काफ़ी-कुछ ऐसा ही है।
आइये, पहले हम स्त्री-पुरुष के स्वरूप और समाज में उनकी उपयोगिता को समझने की कोशिश करते हैं। हमारे समाज में सदियों पहले ही ‘अर्द्धनारीश्वर’ की अवधारणा पेश की गयी थी, जिसके द्वारा स्त्री-पुरुष के बीच समानता दर्शायी गयी। जब हम स्त्री-पुरुष की समानता के झगड़े में पड़ते हैं, तो ऐसे में बहुत ज़रूरी है कि हम समानता का अर्थ समझें, और इसके लिये ‘अर्द्धनारीश्वर’ की अवधरणा को समझना ज़रूरी है। ईश्वर के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप में उनके आधे शरीर को पुरुष रूप में और आधे को स्त्री रूप में प्रदर्शित किया गया है। इस अवधारणा के अनुसार, दोनों में से कोई भी एक-दूसरे से न श्रेष्ठ, न हीन। हांलांकि दोनों स्वरूप एक दूसरे से भिन्न हैं, एक मृदु है, कोमल है, तो दूसरा कठोर। किन्तु शक्ति दोनों में अप्रतिम है।
स्त्री-पुरुष की समानता का इससे अच्छा उदाहरण तो शायद ही हमें कहीं और मिलेगा। यदि इस स्वरूप में से स्त्री या पुरुष में से किसी का भी भाग निकाल दिया जाये, तो बचा हुआ दूसरा भाग अधूरा रह जायेगा। इसका सीधा सा अर्थ है, कि स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं, एक के बिना दूसरा अधूरा है। दोनों में से कोई भी अकेले पूर्ण नहीं। जैसे खंडित मूर्ति पूजनीय नहीं होती, वैसे ही इन दोनों में से कोई भी अकेला पूजनीय नहीं होता, अधूरेपन के साथ सम्मानीय नहीं होता। कहने का तात्पर्य है कि दोनों एक दूसरे के साथ चलकर ही जीवन में सफलता पाते हैं जिससे उनके परिवार, समाज और देश की उन्नति होती है और वे सम्मानित होते हैं। अब अगर हम इस नज़रिए से देखें तो किसी तरह के मतभेद की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है? जैसे प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे किसी स्त्री का सहयोग होता है, बिलकुल वैसे ही प्रत्येक स्त्री की सफलता के पीछे किसी पुरुष का सहयोग भी ज़रूर होता है।
लेकिन हम इंसानों ने कभी अपनी सुविधानुसार, कभी कुछ स्वार्थवश, कभी तो किसी को छोटा बना दिया तो कभी किसी को देवी/देवता का दर्जा दे दिया। जिससे एक ओर अन्याय बढ़ा, तो दूसरी ओर एक-दूसरे के प्रति स्पर्धा और ईर्ष्या।
व्यावहारिक धरातल पर देखें तो दोनों की मौजूदगी से ही तो जीवन में रस आता है। कल्पना कीजिए ऐसी दुनिया की जहाँ केवल स्त्री या केवल पुरुष हों। कैसी बेरंग सी, बेजान सी दुनिया लगेगी वो। असल ज़िंदगी में भी देखा जाये तो, जिन परिवारों में केवल स्त्रियाँ या केवल पुरुष होते हैं, वे परिवार उतने गुलज़ार नज़र नहीं आते जितने कि वे परिवार जिनमें स्त्री-पुरुष दोनों हों। इसी तरह अगर हम दो ऐसे परिवारों की तुलना करें, जिनमें से एक में केवल बेटे/बेटियाँ हों, और दूसरे में बेटा-बेटी दोनों हों, तो हमें नज़र आएगा कि जिस परिवार में बेटा-बेटी दोनों होते हैं, वो एक तरह से पूर्ण सा नज़र आता है।
वास्तव में, स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं, जो सृष्टि, समाज और परिवार को संतुलित करते हैं। इनमें से एक का भी अभाव असंतुलन की स्थिति पैदा करता है। और, ऐसी असंतुलित गाड़ी कितनी दूर जा सकती है? अब यदि इन दोनों के बीच समानता न होती तो वे संतुलन की स्थिति कैसे लाते? परिवार, समाज और देश के प्रति दोनों का समान योगदान होता है। ऐसे में कोई एक बड़ा, सम्मानीय, और दूसरा उससे तुच्छ कैसे हो सकता है? ऐसी स्थिति से तो स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री-पुरुष के बीच समानता है! और, इसी समानता के साथ ही आवश्यक हो जाता है कि दोनों के साथ समाज का समान रवैया भी हो। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दोनों को समान अवसर मिले, समान सम्मान मिले।
पूरक के रूप में यह बात भी उल्लेखनीय है कि स्त्री-पुरुष दोनों की ही कुछ ख़ास विशेषताएँ होती हैं, जो दूसरे में नहीं पायी जातीं! केवल एक ही उदाहरण से हम इस बात को बहुत ही आसानी से समझ सकते हैं, और वो है, एक में मातृत्व की संवेदनाएँ और दूसरे में पितृत्व की! संवेदनाएँ दोनों ही सच्ची हैं, भावनाओं से पूर्ण हैं, लेकिन दोनों के बीच एक विशेष प्रकार का अंतर होता है, जिसे हम सभी ने महसूस किया है। जैसे किसी संतान के लिये माता-पिता दोनों ही आवश्यक हैं, जबकि दोनों में स्पष्ट भिन्नताएँ होती हैं; उसी तरह से स्त्री और पुरुष के बीच कुछ मौलिक भिन्नताएँ होने के बाद भी दोनों समान रूप से सम्मानीय होते हैं।
यदि हम अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का पालन करें, शिव-शक्ति, लक्ष्मी-नारायण के विराट रूप का मान रखें, तो हम सभी स्त्री-पुरुष न केवल एक दूसरे का सम्मान कर सकेंगे, बल्कि एक-दूसरे के पूरक बनकर परिवार और समाज दोनों का विकास भी कर सकेंगे। कितना ही अच्छा हो, यदि हम इस झूठमूठ की प्रतिद्वंद्विता को छोड़कर एक दूसरे का सहयोग करें, एक-दूसरे का सम्मान करें।
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