पिछले कई वर्षों से भ्रष्टाचार का मसला जन मानस को व्याकुल किये हुए है। जनता जितनी जागरूक हो रही है, भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उतनी ही अधिक आवाज़ उठाती नज़र आती है। और, इसी आवाज़ को दबाने के प्रयास में राजनीतिक दल, सत्ताधारी पार्टियाँ भ्रष्टाचार दूर करने के दावे करते नज़र आते हैं।
महसूस करती हूँ, जैसे ही भ्रष्टाचार का नाम आता है, तुरंत ही सारी उंगलियाँ सरकारी तन्त्र की ओर उठ जाती हैं।
आजकल भ्रष्टाचार दूर करने के इरादे से, और साथ ही कार्य-क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से जहाँ-तहाँ सरकारी सेवाओं के निजीकरण की वकालत की जाती है, और कई जगहों पर ऐसा किया भी जा रहा है।
मेरी समझ से कार्य-क्षमता बढ़ाने के लिए सेवाओं का निजीकरण करने के बजाय उन्नत स्तर की निजी-कम्पनियों की संस्कृति यानी कॉर्पोरेट कल्चर अपनाने की ज़रुरत होती है। कॉर्पोरेट कल्चर में केवल समय की पाबंदी ही नहीं लगाई जाती है, बल्कि कर्मचारियों के उत्साह-वर्द्धन के लिए, उनका मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें तरह-तरह के प्रोत्साहन दिए जाते हैं। भय का वातावरण बनाने से काम नहीं चलता। हर इंसान में एक बच्चा होता ही है, जिसे एक ओर अनुशासित करने की ज़रुरत होती है, तो दूसरी ओर प्रोत्साहित करने की भी प्रबल आवश्यकता होती है। समुचित प्रोत्साहन से कार्य-क्षमता भी बढ़ती है और उत्पादकता भी।
बारीकी से देखें, तो कुछ समय पहले तक सरकारी तंत्र से मिलने वाली सेवाओं की प्रकृति अलग थी, और निजी तंत्र के अंतर्गत अलग क्षेत्र आते थे। धीरे-धीरे सरकारी तंत्र में दी जाने वाली सेवों का भी निजीकरण किया जाने लगा। दलील हमेशा यही रही कि सरकारी तंत्र अधिक भ्रष्ट है... जबकि वास्तविक अनुभव हमेशा कुछ और ही रहा। जैसी सेवाएँ हम सरकारी तन्त्र से लेते हैं, उसी प्रकार की सेवाएँ जहाँ निजी क्षेत्र देना शुरू करता है, तो भ्रष्टाचार वहाँ भी अपना पाँव पसारने लगता है। महसूस तो यही होता है कि कई बार निजी क्षेत्र का भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र से भी अधिक होता है। जिसका कारण मुझे यही समझ में आता है कि सरकारी तन्त्र से जुड़े छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कर्मचारी सरकार और पब्लिक के प्रति जवाबदेह होता है। अभी तक अधिकतर सरकारी कर्मचारी नियमित सेवा में होते हैं, (हाँलाकि अब कान्ट्रेक्ट पर काम करने वालों की संख्या बढ़ाई जा रही है)। स्थायी रूप से कार्यरत इन नियमित कर्मचारी के लिए भागना आसान नहीं होता, इसलिए इन्हें तंत्र के नियमों के अनुसार नियंत्रित करना भी आसान होता है।
फिर भी नकारा नहीं जा सकता कि सरकार के बहुत से विभागों में रिश्वत और भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। नियमित सरकारी कर्मचारियों को नियंत्रित करना बहुत कठिन काम नहीं, फिर भी सरकारी तन्त्र में घूसखोरों का दबदबा कहीं न कहीं लचर व्यवस्था की ओर संकेत करता है, जिसको सुव्यवस्थित करने से वह ठीक भी हो सकता है। लेकिन जब घूस का वह भाग सत्ताधारी पार्टी के नेताओं और उनकी पार्टी फंड के लिए आवश्यक हो जाए तो इसे सुव्यवस्थित करना भी संभव नहीं... क्योंकि अब इसमें एक बहुत ही विचित्र कुचक्र शामिल हो जाता है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस तन्त्र को सुधारने का इलाज इसका निजीकरण है? जब सरकार के अंतर्गत ही कान्ट्रेक्ट यानी अस्थायी रूप से कार्यरत कर्मचारी किसी भी तरह से सरकार या पब्लिक के प्रति जवाबदेह नहीं होते, तो निजी क्षेत्र किसके प्रति जवाबदेह होगा? फिर, जब भ्रष्ट आमदनी लोकतंत्र के कर्णधारों के लिए अनिवार्य हो, तो क्या निजी क्षेत्र उसे रोक सकेगा?
इसी स्थान पर निजी क्षेत्र की स्थिति यह है कि पहले तो कर्मचारी ही यहाँ स्थायी नहीं होते... कहीं कर्मचारी खुद नौकरियाँ बदलते रहते हैं, तो कहीं कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को बदलती रहती हैं। ऐसे में कर्मचारियों या कम्पनी या दोनों के निजी हित भले ही सिद्ध होते हों, लेकिन सेवा जैसे गम्भीर क्षेत्रों के लिए यह परंपरा देश के लिए हितकारी नहीं हो सकती। लगातार नौकरी बदलने वाले कर्मचारी तो किसी के लिए न ही वफ़ादार हो सकते हैं, और न ही सरकार या पब्लिक के प्रति जवाबदेह। रही कम्पनी की बात, तो जब तक संभव होता है कंपनी मालिक सारे भ्रष्ट तरीके अपनाते हुए अपने निजी हित साधता रहता है। वह भी अपने किसी भी निर्णय के लिए पब्लिक या सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं होता। और, यदि उसके निजी हितों के समक्ष कुछ अधिक परेशानियाँ खड़ी होने लगती हैं, तो ये आसानी से देश से पलायन भी कर जाते हैं।
ऐसे में विचार करने वाली बात है कि क्या सेवा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निजी क्षेत्रों या अनियमित कर्मचारियों पर निर्भर किया जा सकता है?
वाकई अनियमित कर्मचारी भ्रश्टाचार भी कर सकते है ओर ंओकरी छूटनए का भय भी नही होता ।
जी, पकडे जाने का भय होने से पहले ही वे नौकरी छोड़ सकते हैं। उनकी जवाबदेही भी कम होती है. और, आमतौर पर सरकारी नियमों की जानकारी का भी अभाव होता है
Uttam