राज़ी – फ़िल्म

राज़ी - मेरी नज़र में

राज़ी देखने को दिल राज़ी हुआ। होना ही था, जीवन की चुनौतियों को जीतती असल ज़िन्दगी की कहानी देखने का दिल क्यों न करे? हरिंदर सिक्का की ‘कॉलिंग सेहमत’ का अबतक केवल नाम ही सुना था। और जब देखा, तो एक ओर असल ज़िन्दगी के असल पात्रों की असल निष्ठा, ईमानदारी, देशप्रेम ने दिल मोहा तो दूसरी ओर कुशल निर्देशन और कलाकारों के सशक्त अभिनय ने दिल मोह लिया। 'जंगली पिक्चर्स' और 'धर्मा प्रोडक्शन्स' को तहेदिल से बधाई!

मेघना गुलज़ार ने सचमुच सिद्ध किया कि वह बहुत ही क़ाबिल माता-पिता की बहुत ही होनहार संतान हैं! कितनी ख़ूबसूरती से पूरी कहानी को सहजता के साथ प्रस्तुत किया है, देखते ही बनता है। कहीं भी कहानी को अनावश्यक रूप से खींचा नहीं, कि उबाऊ हो जाए, लेकिन साथ ही हर पहलू स्पष्ट करती गयीं कि कुछ अधूरा, अनछुआ न रह जाए। हर चरित्र को ख़ूबसूरती से उभारा, कि वह न केवल हम दर्शकों के सामने स्पष्ट हो जाए, बल्कि उस चरित्र को जीने वाले कलाकार को भी खुद पर नाज़ हो जाए।

आलिया भट्ट के लोग चुटकुले सुनाते हैं, क्योंकि किसी शो में उन्होंने बचकाने उत्तर दिए थे। कलाकार विद्वान् न हो, चलेगा। लेकिन वह कलाकार न हो, तो नहीं चल सकता। आलिया के दमदार अभिनय ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि वह बहुत ही सशक्त और संजीदा कलाकार हैं। चुलबुली नाज़ुक लड़की की भूमिका में वह जितनी जान डाल देती हैं, एक एजेंट की संवेदनशील और गंभीर भूमिका भी वह उतने ही सशक्त ढंग से निभाती हैं।

देखा जाए तो पूरी कास्टिंग ही मंजे हुए कलाकारों का एक पूरा दल है। किसी ने ऐसा लगने ही नहीं दिया कि हमारे सामने कहानी चल रही है और वे सब अभिनय कर रहे हैं। हर वक़्त यही लगा जैसे वास्तविक जीवन के वास्तविक लोग हमारे सामने चल-फिर रहे हैं।

हिदायत खान और तेजी के रूप में रजित कपूर और सोनी राज़दान हों, या ख़ालिद मीर के रूप में जयदीप अहलावत, इक़बाल की भूमिका में विकी कौशल, अब्दुल आरिफ़ ज़कारिया हों, या ब्रिगेडियर सैयेद के रूप में शिशिर शर्मा, उनके बड़े बेटे और बहु के रूप में अश्वथ भट्ट और अमृता खान्विकर, सभी के अभिनय ने इस सशक्त प्रस्तुति को कहीं से भी कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। यहाँ तक कि श्यामा के रूप में सीमा को देखकर भी नाज़ हो उठा, क्योंकि सीमा ने कभी मेरे साथ भी काम किया है। उनकी मेहनत और क़ाबलियत ने आज उन्हें बड़े परदे तक पहुँचा दिया है। (मेरी व्यक्तिगत शुभकामनाएँ)

गीत आवश्यकता भर के ही हैं, बिना वजह नहीं भरे गए। और, ये गीत सुमधुर होने ही हैं, आखिर खुद गुलज़ार साहब की कलम का जादू चला है... उसपर अरिजीत सिंह की मधुर आवाज़ सुन आप अनायास ही गुनगुना देते हैं... ‘ऐ वतन... मेरे वतन...’। फिर, शंकर-एहसान-लॉय का दिलकश संगीत और ‘दिलबरो...’ गीत दिल को छू लेता है।

इन सबके अलावा कुछ और बातों ने भी मन को सोचने को मजबूर कर दिया।

सच है कि आज़ादी के बाद से ही हम भारत-पाक की लड़ाई में उलझे हुए हैं। हमारा देशप्रेम हमपर दो सौ साल राज्य करने वाले अंग्रेजों के खिलाफ़ कम और पाकिस्तान के खिलाफ़ ज़्यादा है। यह भी सच है कि इस भावना के अपने वाजिब कारण है। लेकिन फिर भी कहानी सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या ये संघर्ष हमें बहुत सारी बुनियादी बातों से दूर नहीं कर रहा? कब तक हम नफ़रत की आग में ही जीते रहेंगे?

सचमुच सीमा के उस पार भी हमारे जैसे ही लोग हैं, जो अच्छे इंसान भी हैं, और अपने देश से बहुत प्यार करते हैं। बस, हमारे साथ अच्छे नहीं, क्योंकि हम दोनों एक-दूसरे के दुश्मन बने बैठे हैं!

क्या ही अच्छा होता कि हम अपने-अपने वतन को प्यार करते लेकिन उस प्यार के लिए एक-दूसरे से नफ़रत न करते! वो अपने वतन में खुश रहते, हम अपने वतन में! लेकिन शायद ऐसा कभी हो नहीं सकता... न जाने कितने घर, कितने व्यवसाय, कितने व्यापार हमारी आपसी नफ़रतों और रंजिशों के भरोसे ही चल रहे हैं। खैर, ये मेरी व्यक्तिगत सोच है।

फ़िल्म के शौक़ीन न भी हों, तो भी देखने को राज़ी करती है, ये फ़िल्म, “राज़ी”। बधाई एवं शुभकामनाएँ!

 

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Posted by Garima Sanjay on Tuesday, May 22, 2018