नेताजी
“कृष्णा, मुझे कुछ तो समय दो... तुम जानती हो, मेरे घर के हालात! अभी मैं शादी कैसे कर सकता हूँ? तुम जानती हो, मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ... शादी तो तुमसे ही करूंगा... लेकिन परिवार की ज़िम्मेदारियाँ... कुछ तो समझो... कुछ तो समय दो...”
विनय के शब्द आज एक बार फिर कृष्णा के कानों में गूँज रहे थे। लेकिन वह भी तो मजबूर थी। उसके माता-पिता को उसकी शादी करने की जल्दी थी। और ये विनय था कि किसी भी तरह से तैयार ही नहीं हो रहा था।
कितने साल से दोनों साथ थे, एक दूसरे को भी जानते-समझते थे और एक-दूसरे के परिवारों और उनके हालातों को भी। फिर भी, उस समय दोनों ही एक-दूसरे को समझ नहीं पा रहे थे। न विनय समझ पा रहा था कि कृष्णा परिवार के किस दबाव से गुज़र रही है, और न ही वह समझ पा रही थी कि विनय पर परिवार की कैसी ज़िम्मेदारियों का बोझ है। दोनों अपनी-अपनी समस्याओं से उलझते बस जुदा ही हो गए।
इसके बाद कभी कोई ख़बर नहीं... कोई सम्पर्क नहीं। बस, कुछ दोस्तों से यही पता चला कि बहुत दिनों तक विनय न ही किसी दोस्त से मिला और न ही किसी से बात की। उसके बाद, कब उसका बिजली के सामान का वो छोटा सा कारोबार एक बड़ा बिज़नेस बन गया, कृष्णा को कुछ पता ही नहीं। उसने तो पति के साथ वो शहर जो छोड़ा तो फिर बस रस्म-अदायगी के लिए ही कभी-कभी माता-पिता से मिलने आ जाती थी। न उसके मायके में कभी किसी ने विनय की कोई चर्चा की, और न ही दोस्तों ने उसके बारे में कुछ भी बताया।
आज लगभग बारह साल बाद, अखबार में विनय की तस्वीर देख उसका सारा अतीत उसकी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ था। कॉलेज में थोड़ी-बहुत नेतागिरी तो करता था विनय, लेकिन बस मौज-मस्ती के लिए... ये तो कभी सोचा ही नहीं था कि वह आगे चलकर प्रदेश स्तर की राजनीति करने लगेगा! कॉलेज में डिबेट वगैरह तो ख़ूब जीतता था, लेकिन ये कहाँ सोचा था कि आगे चलकर राजनीतिक रैलियों में जगह-जगह भाषण देने के लिए उसे बुलाया जाएगा। अख़बार हाथ में लिए विचारों में उलझी हुई थी कि पति देव ने झकझोरा, ‘अरे कृष्णा, मैंने सुना है ये विनय जी तुम्हारे ही कॉलेज के हैं। कुछ जान-पहचान हो तो मिलवा दो यार, सरकार बनने पर मेरी पोस्टिंग भी अच्छी जगह हो जायेगी!’
सुनकर हैरान थी कृष्णा। समय-चक्र कैसे बदल जाता है। कल तक यही विनय अपना परिवार चलाने के लिए, अपने छोटे से कारोबार को बढ़ाने के लिए लोगों की सिफ़ारिशें खोजता फिरता था। और आज, मेरे पति को अपने प्रमोशन के लिए उसकी सिफ़ारिश चाहिए! कल तक जो विनय अपनी ज़िन्दगी की उलझनों में ऐसे फँसा था कि अपने प्यार तक को छोड़ने को मजबूर हो गया था, वही आज इतना समर्थ था कि कृष्णा के पति जैसे न जाने कितनों की मदद कर सकता था।
देव कृष्णा पर विनय जी से मिलने के दबाव बनाते जा रहे थे, लेकिन कृष्णा अभी भी समझ नहीं पा रही थी, कि क्या आज विनय उसे पहचानेगा? पहचान भी लिया तो क्या उसकी मदद करेगा?
‘क्या सोच रही हो, कृष्णा? वो विनय जी तुम्हारे साथ ही पढ़ते थे न? सुना है, किसी लड़की के चक्कर में अब तक शादी नहीं की। कौन थी वो? तुम्हें तो पता ही होगा?’
‘हाँ देव, मेरे साथ ही पढ़ते थे विनय जी, लेकिन मुझे नहीं लगता कि वो हमारी कोई मदद करेंगे। पता नहीं पहचानेंगे भी या नहीं...’ उसने बहुत चतुराई से लड़की का ज़िक्र गुम कर दिया।
‘अरे यार, मदद कैसे नहीं करेंगे? तुम्हें न, पहचान बनानी नहीं आती! एक काम करो, तैयार होकर मेरे साथ चलो। यहीं पास में गेस्ट हाउस में ठहरे हैं। तुम चलकर अपना परिचय तो दो, आगे मैं देख लूँगा।’
देव के शब्दों में जितना आत्मविश्वास था, कृष्णा का मन अतीत के भंवर में उतना ही उलझता जा रहा था। उस समय उसने तो विनय की एक न मानी थी, अब आज वह उसकी क्यों सुनने लगा? विनय भी अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों को लेकर परेशान था, तो आज उसके परिवार की परेशानियों को वह क्यों समझने लगा?
कृष्णा के पास विनय से न मिलने जाने के लाखों कारण थे, लेकिन देव उन सभी कारणों पर मिट्टी डाल, बस किसी तरह उससे मिलना चाहता था। विनय जी से परिचय के साथ ही उसे अपनी नौकरी में एक सुनहरा भविष्य दिख रहा था।
आखिर देव की ज़िद के आगे कृष्णा को हारना ही पड़ा। मन आशंकाओं से घिरा हुआ था, लेकिन फिर भी विनय ‘जी’ से मिलने जाने को तैयार हो गयी।
कुछ ही मिनटों में वह पति के साथ उस गेस्ट हाउस के रिसेप्शन पर थी, जहाँ विनय ‘जी’ ठहरे हुए थे। देव ने पार्टी के कुछ लोकल कार्यकर्ताओं से बात की, एक पर्ची में कृष्णा के साथ अपना नाम लिखकर दिया और पर्ची अन्दर पहुँचा दी गयी।
रिसेप्शन में रखे सोफ़े के एक सिरे पर कृष्णा दुबककर बैठ गयी। बाँई हथेली पर चेहरा टिकाये ‘नेताजी बिज़ी हैं’ का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी। अचानक रिसेप्शन पर हलचल मची। ‘नेताजी आ रहे हैं’ का शोर-सा हुआ, और कुछ समझ पाती इससे पहले उसके ठीक सामने विनय खड़ा था। वह हड़बड़ाकर खड़ी हो गयी।
‘अरे, कृष्णा जी आप?’ विनय के शब्द कानों में घुल गए।
वह जानती थी उसके पति के अलावा न जाने कितनी नज़रें इस समय उसी पर टिकी थीं। फिर भी अतीत और वर्तमान के विनय को अपलक बस देखती रह गयी।
अचरज भरी आँखों से उसे देखती रह गयी। भोला-भाला सा वो विनय आज कितना बदल गया है। चेहरे पर मासूमियत की जगह कठोरता थी, आँखों में शरारत भरी खिलखिलाहट नहीं, शून्य निष्ठुरता थी।
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Posted by Garima Sanjay on Saturday, May 19, 2018