भरोसा और राजनीति
पूरा इतिहास भरोसा तोड़ने वालों से भरा पड़ा है।
राजनीतिक इतिहास भी, सामाजिक इतिहास भी, और व्यक्तिगत इतिहास भी!
जिसने एक बार भरोसा तोड़ दिया, उनपर दोबारा भरोसा कर पाना कितना आसान है? और, क्या उनपर कभी भी भरोसा करना चाहिए?
आपके किसी मित्र ने आपको धोखा दिया, क्या आप दोबारा उसपर कभी भरोसा कर सकेंगे?
किसी अपने ने दगा किया तो क्या आप दोबारा कभी उसे अपना मान सकेंगे?
यदि कोई गलत इरादे से आपके नज़दीक आता है तो क्या आप कभी भी उनपर भरोसा कर सकते हैं?
अक्सर हमारे कुछ नाते-रिश्तेदार लगातार हमारे पीठ-पीछे हमारी बुराइयाँ करते रहते हैं। उनपर हम कितना भरोसा कर सकते हैं? कितने भी करीबी क्यों न हों, भले ही रिश्ता बना रहे, लेकिन भरोसा कर पाना मुश्किल होता है।
बरसों बाद सोशल मीडिया पर आप किसी पुराने परिचित से मिलते हैं। दिल ख़ुशी से उछल पड़ता है, मानो बचपन लौट आया हो! लेकिन बहुत ही जल्दी उनकी कट्टर सोच सामने आती है। और आपका भरोसा टूट जाता है।
क्या ऐसे लोगों पर आगे कभी भरोसा किया जा सकता है?
लेकिन भरोसा तोड़ने वाले ऐसी भावनाओं की परवाह नहीं करते। चाहे वे व्यक्तिगत स्तर पर हों, सामाजिक स्तर पर या राजनीतिक स्तर पर।
कुछ ऐसा ही चरित्र भारतीय राजनीति का भी है।
भ्रष्टाचार से त्रस्त, शिक्षित, मध्यम वर्ग ने भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए एक दल को बहुमत देकर चुना। भीतर यही विश्वास था कि भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलने पर देश के विकास के साथ-साथ शिक्षित वर्ग की भी मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी हो सकेंगी—मसलन, उनके बच्चों को रोज़गार मिल सकेंगे, आम ज़रूरतों की चीज़ों की कीमतें नियंत्रित होंगी, टैक्स-प्रणाली में राहत मिलेगी... ये आवश्यकताएँ बहुत बड़ी न थीं, लेकिन नौकरी-पेशा वालों के लिए मूलभूत थीं।
लेकिन जल्द ही महसूस हुआ कि भले ही सरकार ने बहुत कुछ किया, बहुत से अच्छे काम किये गए, और कम से कम कोशिशें तो बहुत कीं, लेकिन उस शिक्षित (मध्यम) वर्ग को लगातार नज़रअंदाज़ ही किया जाता रहा, जो आज भी उनका ही बना हुआ है।
शायद उनका भरोसा तोड़ना आसान लग रहा होगा। शायद उन्हें वे ‘वोट-बैंक’ नहीं लग रहे होंगे?
दूसरी ओर ऐसी पार्टी है, जिसने भ्रष्टाचार का ऐसा लेप लगाया है कि आज देश के हर सिस्टम में भ्रष्टाचार गहराई तक घुस चुका है। उनपर कोई कैसे भरोसा करे?
इसपर भी चैन नहीं मिला, तो कुछ ने धर्म विशेष को विभाजित करके ही राजनीति की और कुछ ने धर्म-सम्प्रदाय का तुष्टीकरण करके।
इन्हें समाज में वैमनस्य फैलाने में इतना आनन्द आता है कि देशभक्ति की भावना तो न जाने कब गौण हो गयी!
कभी हिन्दू-मुस्लिम किया, तो फिर हिन्दू-सिख कर दिया, फिर बौद्ध, बैकवर्ड, दलित, महादलित और न जाने कितने खण्डों में पूरे देश को विभाजित कर दिया!
हर वक़्त पुरजोर कोशिश की जाती रही कि समाज को सनातन रहने ही नहीं दिया जाए!
नवीनतम खंड ‘लिंगायतों’ का बना दिया गया! शिवलिंग की पूजा तो मैं भी करती हूँ, तो क्या इनके इस बँटवारे के बाद मुझे मेरी आस्था बदलनी होगी?
खैर, व्यक्तिगत रूप से तो मुझपर इन राजनीतिक दांवपेंचों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन अनेकों ऐसे हैं, जो इनके जाल में फँस जाते हैं! उनको भी नज़रअंदाज़ किया जाए? मूक रहकर समाज को बिखरते देखते रहें?
वोट बैंक का विभाजन यहाँ तक नहीं रुका तो कभी दंगे फंसाद करवाए गए, तो कभी क़त्ल और आतंक फैलाए गए।
दिल यहाँ नहीं भरा तो छोटी-छोटी बच्चियों के बलात्कार और हत्या तक के काण्ड करवाए गए! ऐसी ओछी राजनीति पर कैसे भरोसा किया जाए?
राजनीति का इतना कुरूप चेहरा आँख खोलकर तो शायद ही कोई स्वीकार सकता होगा!
हर बार किसी न किसी विषय पर सनसनी फैलायी गयी, लेकिन कभी पब्लिक का भरोसा जीतने की कोशिश नहीं की गयी।
राजनीतिज्ञों से बात कीजिए, तो वे बड़े-बड़े आँकड़ों में ऐसा उलझाते हैं, कि आपको महसूस होता है कि इन विद्वानों के आगे हमारी समझ बिलकुल ही निकृष्ट है। आँकड़े ही ज़रूरी हैं, भरोसा-वरोसा सब बकवास है!
ठीक है, राजनीति और आँकड़ों का बड़ा गहरा सम्बन्ध है। जिसकी समझ मुझ जैसों को हो ही नहीं सकती!
“लेकिन एक बार सोचिये, क्या कर्णाटक के नतीजे ऐसा नहीं जताते कि पब्लिक किसी भी राजनितिक दल पर पूरी तरह से भरोसा ही नहीं कर पा रही?”
आज बहुत से शिक्षित लोग राजनीति से दूर रहना चाहते हैं। कारण केवल एक है, कि वे किसी पर भरोसा ही नहीं कर पा रहे। लेकिन फिर भी कोई उनका भरोसा जीतने की कोशिश भी नहीं करता।
राजनैतिक विद्वान् ऐसे शिक्षित वर्ग का बड़ी ही आसानी से परिहास करते हैं। क्योंकि शायद उनमें किसी को वोट बैंक नज़र नहीं आता। इसलिए उनकी पीड़ा देखने की भी किसी को कोई ज़रुरत नहीं!
शायद इसलिए क्योंकि राजनीतिज्ञ केवल संख्या और आँकड़ों की बातें ही समझते हैं, और यही भाषा सर्व-साधारण को भी समझाते हैं। जो भी खुद को ज़रा भी बुद्धिजीवी समझता है, वह इन्हीं आँकड़ों में उलझता और उलझाता रहता है।
भले ही राजनीति को फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन उनकी पीड़ा सच्ची है...
आँकड़ों के लिए ‘भरोसे’ जैसी बातें बचकानी हैं, लेकिन पब्लिक की भावनाएँ भरोसे पर बहुत अधिक टिकी होती हैं।
सभी राजनीतिक दल आँकड़ों को जीतना चाहते हैं, भरोसा जीतना कोई चाहता ही नहीं!
आगे भी त्रिशंकु सदन के लिए राजनीतिक जोड़तोड़ चलती रहेगी, सांठ-गाँठ होती रहेगी। लेकिन भरोसा जीतने की ज़रुरत किसी को न होगी। हाँ, ज़रुरत पड़ने पर पब्लिक के मत्थे वोट न देने का इलज़ाम मढ़ दिया जायेगा।
हैप्पी लोकतंत्र!
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कर्णाटक में त्रिशंकु सदन क्या यह नहीं सिद्ध करता कि वोटर के मन में किसी भी पार्टी के लिए पूरा भरोसा नहीं?आज मेरे ब्लॉग...
Posted by Garima Sanjay on Wednesday, May 16, 2018