हैदराबाद पुलिस– एक चर्चा मेरी नज़र से
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“बधाई हो, हैदराबाद पुलिस ने तो कमाल कर दिया!”
“कमाल? यह असंवैधानिक काम है! निंदनीय है”
“निंदनीय है? लेकिन आप तो कहते थे रेपिस्ट को जो सज़ा मिले कम है?”
“बिलकुल कहते थे… लेकिन सज़ा क़ानून के दायरे में रहकर दी जाए!”
“लेकिन क़ानून के दायरे में तो सालों साल बीत जाते हैं, कुछ होता नहीं… निर्भया के आरोपी आज सात साल बाद भी बस आरोपी ही हैं…”
“उन सभी का केस चल रहा है… न्यायपालिका अपने तरीक़े से काम करती है… समय लगता है!”
“समय कितना? इतना समय कि दूसरे रेपिस्ट की हिम्मत बढ़ती रहे?”
“दूसरों की हिम्मत बढ़ने का यह मतलब नहीं कि हम किसी से उनका मानवाधिकार छीन लें!”
“मानवाधिकार? और जिसका रेप हुआ उसके मानवाधिकार का क्या?”
“उसी के लिए तो न्यायपालिका बैठी है! उसे एक न एक दिन इंसाफ़ मिलकर ही रहेगा!”
“सात साल से दिल्ली वाली निर्भया की चिता इंसाफ़ का इंतज़ार करते-करते न तप रही है, न झुलस रही है… कब वह दिन आएगा जब उसे इंसाफ़ मिलेगा?”
“न्यायपालिका का अपना तरीक़ा होता है… आप नासमझ लोगों को क़ानून की समझ नहीं… भले ही सौ दोषी बच जाएँ, पर किसी निर्दोष को सज़ा बिलकुल नहीं होनी चाहिए!”
“लेकिन आप तो कहते थे, हमारे देश में भी उन देशों जैसे क़ानून होने चाहिए, जहाँ रेपिस्ट को खुले चौक में…”
“आवेश में आकर कुछ भी कहा जा सकता है, लेकिन किसी को जल्दी इंसाफ़ दिलाने के चक्कर में पुलिस को अपनी मनमानी नहीं करनी चाहिए। इस तरह से तो पुलिस किसी को भी मारने लगेगी!”
“जी… भले ही सारी लड़कियाँ, महिलाएँ हमेशा आतंक के साये में ही जीती रहें?”
“उसके लिए तो हम महिला सशक्तीकरण का अभियान चलाते हैं…”
“केवल अभियान चलाने से क्या होगा? मोमबत्तियाँ जलाकर और मोर्चे निकालकर इंसाफ़ मिल जाएगा? रेपिस्ट की हिम्मत बढ़ती नहीं रहेगी?”
“देखिए, भावनाओं में बहकर न्याय नहीं होते… क्या आप समझते नहीं कि हैदराबाद पुलिस ने फ़ेक एनकाउंटर किया है? यह पुलिस की नाइंसाफ़ी है!”
“और जो उन रेपिस्ट ने किया था वह क्या किसी लड़की के साथ नाइंसाफ़ी नहीं थी?”
“इसका यह मतलब नहीं कि क़ानून भी उनकी तरह बनकर काम करे… हम हैदराबाद पुलिस की निंदा करते हैं…”
“निंदा करें? फिर जब लड़कियों ने पुलिस वालों को थैंक यू बोला, महिलाओं ने उन्हें राखी बाँधकर मिठाई खिलाई तो आँखों में आँसू क्यों आ गए? दिल में ऐसी राहत क्यों मिली कि अब शायद रेपिस्ट ऐसे क़दम उठाने से पहले पचास बार सोचेगा… कि कब कौन सी पुलिस फिर से सटक जाए और फ़ेक एनकाउंटर कर डाले!”
“आप फ़ेक एनकाउंटर का समर्थन करते हैं? धिक्कार है! हम आपकी कड़ी निंदा करते हैं!”
“ओह! तो यानी पुलिस ने ग़लत किया? फिर, मुझे क्यों नहीं लग रहा?”
“आपकी आँखों में भावनाओं की पट्टी जो चढ़ी है! आप लोग न क़ानून की समझ रखते हैं और न ही मानवाधिकार की… क़ानूनी समझ रखने वाले हर नागरिक को इसकी कड़ी निंदा करनी चाहिए!”
“जी… शायद आप सही कह रहे हैं… हम रेप की भी कड़ी निंदा करते हैं, रेपिस्ट की भी और पीड़ितों की भी… क्योंकि उनकी किसी न किसी ग़लती की सज़ा उन्हें मिली होगी… चाहे वह छोटी सी बच्ची क्यों न हो…
“हम पीड़ित के मानवाधिकार की भी चर्चा करेंगे, और रेपिस्ट के मानवाधिकार की भी… क्योंकि मानव हैं तो अधिकार ही अधिकार हैं सबके पास!
“पीड़ित, उनके घर वाले और दूसरी लड़कियाँ, महिलाएँ हर वक़्त रेप और मॉलेस्टेशन के डर में जीती रहें और आरोपी सीने तानकर उन्हें और भी अधिक डराते रहें, लेकिन हम हर बार उनकी निंदा करते रहेंगे…
“हम मोमबत्तियाँ जलाएँगे, मोर्चे निकालेंगे, लेकिन किसी को सज़ा कभी नहीं होने देंगे… क्योंकि केस लटके रहें तभी फ़ायदा है… बहुतों का!
“हम हैदराबाद पुलिस की निंदा करते हैं… करनी ही पड़ेगी! आख़िर उन्हें क्या हक़ था क़ानून अपने हाथ में लेने का? न्याय तो कभी न कभी हो ही जाता… बीस-पच्चीस या पचास साल इंतज़ार नहीं कर सकते?
“हाँ, बिलकुल ठीक… कड़ी निंदा, कड़ी निंदा! सबकी कड़ी निंदा! जो जलकर मरी उसकी भी और जिसने अस्पताल में दम तोड़ा उसकी भी कड़ी निंदा! जिन्होंने जलाकर मारा उनकी भी कड़ी निंदा, और जिन्होंने शिकायत दर्ज कराने की सज़ा देने के लिए फिर से रेप करके मारा उनकी भी कड़ी निंदा… पुलिस क़ानूनी दाँवपेंच में उलझी रही उसकी भी कड़ी निंदा, पुलिस ने क़ानून अपने हाथ में लिया, उसकी भी कड़ी निंदा… और फ़ास्ट-ट्रैक कोर्ट के कारगर न होने की भी कड़ी निंदा! सबकी कड़ी निंदा!