रानी (लघुकथा)

गर्मी की तपती दोपहर। पाउडर-क्रीम, लिपस्टिक, काजल, से भरा भारी सा बैग कंधे पर लटकाए, घर-घर दरवाज़े खटकाती रानी।
किसी दरवाज़े पर इंकार सुनती, तो कहीं-कहीं कुछ फटकार झेलती, फिर, कहीं से दो-चार आइटम बेचकर चैन की साँस भी लेती। किसी भी तरह से अधिक से अधिक सामान बेचने की धुन। इस धुन के पीछे बस एक ही आस... पूरी हो सकेंगी उसकी पारिवारिक ज़रूरतें और ज़िम्मेदारियाँ...

शाम ढलने के साथ ख़ुद भी कुछ ढलती हुई सी, लगभग उतने ही भारी बैग को एक कंधे से दूसरे पर लटकाती, घर जाने के लिए कभी पैदल, धूल फाँकती, तो कभी बसों में धक्के खाती रानी। आज कितने रुपए की बिक्री हुई... इस बिक्री से वह कितनी बचत कर सकेगी... अपने परिवार की कितनी ज़रूरतें पूरी कर सकेगी... मन ही मन हिसाब लगाती, बस जल्दी से जल्दी घर पहुँच जाने को आतुर रानी।

तेज़ कदमों से घर की ओर लगभग दौड़ती हुई सी रानी जल्दी ही घर के दरवाज़े के भीतर खड़ी थी और, परिवार में आवभगत हुई थी...

‘सारा-सारा दिन घूमती फिरती है... कुछ कमाई भी हुई या बस यूँ ही आवारा की तरह घूमकर-घुमाकर आ गई?’

‘बच्चा दिन भर तेरे लिए रोता है, उसका कुछ ख़याल भी है?’

‘शाम हो गई है... चल, जल्दी से एक कप चाय बना दे!’

मलिन चेहरा, बिखरे बाल, थकन से चूर शरीर लिए सूखी नज़रों से परिवार को देखती रानी!